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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
नहीं है। दूसरा जानपना ऐसा जो कितनी ही विषयरूप वस्तु का जानपना भी है और मोह कर्म के उदय जा निमित्त पाकर इष्ट में राग करता है, भोग की अभिलाषा करता है तथा अनिष्ट में द्वेष करता है, अरुचि करता है सो ऐसे राग-द्वेष से मिला हुआ है जो ज्ञान उसका नाम अशुद्ध चेतनालक्षण कर्मचेतना कर्मफलचेतनारूप कहा जाता है, इसलिए बन्ध का कारण है।।२१५ ।।
(श्री समयसार कलश टीका, कलश ११६ में से) * इस समस्त अधिकार में (इदं एव तात्पर्य) निश्चय से इतना ही कार्य है। वह कार्य कैसा ? “शुद्धनयः हेयः न हि” (शुद्धनयः) आत्मा के शुद्ध स्वरूप का अनुभव ( हेयः न हि) सूक्ष्म कालमात्र भी विसारने (भूलने) योग्य नहीं है। किस कारण ? " हि तत् अत्यागात् बन्धः नास्ति” (हि) जिस कारण (तत्) शुद्ध स्वरूप का अनुभव , उसके (अत्यागात् ) नहीं छूटने से ( बन्धः नास्ति) ज्ञानावरणादि कर्म का बन्ध नहीं होता। और किस कारण ? “ तत्त्यागात् बन्ध एवं” ( तत् शुद्ध स्वरूप का अनुभव, उसके (त्यागात्) छूटने से (बन्ध एव) ज्ञानावरणादि कर्म का बन्ध है। भावार्थ प्रगट है।।२१६ ।।
(श्री समयसार कलश टीका, कलश १२२ में से)
* सम्यग्दृष्टि जीवों के द्वारा (जातु) सूक्ष्म कालमात्र भी (शुद्धनयः) शुद्ध चैतन्यमात्र वस्तु का अनुभव (त्याज्यः न हि) विस्मरण योग्य नहीं है। कैसा है शुद्धनय ? “बोधे धृतिं निबध्नन्” ( बोधे) आत्मस्वरूप में (धृति) अतीन्द्रिय सुखस्वरूप परिणति को (निबघ्नन् !) परिणमाता है।।२१७।।
(श्री समयसार कलश टीका, कलश १२३ में से) * और कैसी है ? “निजरसप्राग्भारं” (निजरस ) चेतनगुण, उसका (प्राग्भारं) समूह है। और कैसी है ? “ पररूपतः व्यावृत्तं” ( पररूपतः)
* इन्द्रियज्ञान चंचल है
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