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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
* शरीर में आत्मबुद्धि होना वो ही संसार के दुःख का कारण है; इसलिए उसको शरीर में आत्मबुद्धि छोड़कर तथा बाह्य विषयों में इन्द्रियों की प्रवृत्ति को रोककर अंतरंग में-आत्मा में प्रवेश करना चाहिए।।१९२।।
(श्री समाधितंत्र, गाथा १५ का अर्थ, श्री पूज्यपादस्वामी) * मैं अनादिकाल से आत्मस्वरूप से च्युत होकर इन्द्रियों द्वारा विषयों में पतित हुआ, इसलिए उन विषयों को प्राप्त करके वास्तव में मैं अपने को “ मैं वहीं हूँ"-आत्मा हूँ ऐसा मैंने पहिचान नहीं।।१९३।।
(श्री समाधितंत्र, गाथा १६ , श्री पूज्यपादस्वामी)
* ज्ञान परपदार्थों को जानता है-ऐसा कहना वह भी व्यवहारनय का कथन है। वास्तव में तो आत्मा अपने को जानते ही समस्त परपदार्थ जानने में आ जाते हैं ऐसी ज्ञान की निर्मलता-स्वच्छता है।।१९४ ।।।
(श्री समाधितंत्र, गाथा २० के विशेष में से)
* जिसके-शुद्धात्मस्वरूप के अभाव में मैं सोता हुआ पड़ा था-अज्ञान अवस्था में था, और जिसके-शुद्धात्मस्वरूप के-सद्भाव में मैं जाग गया हूँ यथावत् वस्तुस्वरूप को जानने लगा हूँ, वह शुद्धात्मस्वरूप इन्द्रियों द्वारा अग्राह्य, वचनों से अगोचर और स्वानुभवगम्य है; वह मै हूँ।।१९५।।
(श्री समाधितंत्र, गाथा २४, श्री पूज्यपादस्वामी) * सर्व इन्द्रियों को रोककर स्थिर हुए अंतरात्मा द्वारा क्षणमात्र देखने वाले को-अनुभव करने वाले जीव को-जो चिदानन्द स्वरूप प्रतिभासित होता है वह परमात्मा का स्वरूप है।।१९६ ।।
(श्री समाधितंत्र, गाथा ३०, श्री पूज्यपादस्वामी) * अपने-अपने विषयों में जाती हुई-प्रवर्तती हुई-कौन (प्रवर्तती
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* इन्द्रियज्ञान पौद्गलिक है
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