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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है वाली और अनेक प्रकार के संकल्प विकल्प को धारण करने वाली स्त्री कुलटा समझी जाती है और निकृष्ट समझी जाती है। उसी प्रकार जो बुद्धि अपने चैतन्य रूपी मंदिर से निकलकर बाह्य शास्त्रों में विहार करने वाली है, और अनेक विकल्पों को धारण करने वाली है अर्थात् स्थिर नहीं है। ऐसी बुद्धि उत्तम बुद्धि नहीं समझी जाती इसलिए अपनी आत्मा के हित के अभिलाषियों को चाहिए कि वे अपने आत्मा के स्वरूप से भिन्न पदार्थों में अपनी बुद्धि को भ्रमण न करने देवें और स्थिर रखें उसी समय उनकी बुद्धि उत्तम बुद्धि हो सकती है।।१८८ ।। ( श्री पद्मनन्दी पंचविंशतिका, गाथा ३८ का भावार्थ ) * परन्तु ( मात्र) पुद्गल परिणाम के ज्ञान को (आत्मा के) कर्मपने करता हुआ अपने आत्मा को जानता है, वह आत्मा (कर्म, नोकर्म से) अत्यन्त भिन्न ज्ञानस्वरूप होता हुआ ज्ञानी है।।१८९ ।। ___ (श्री समयसारजी, गाथा ७५ की टीका में से) * बहिरात्मा इन्द्रिय-द्वारों से बाह्य पदार्थों को ही ग्रहण करने में प्रवृत्त होने से आत्मज्ञान से परांड मुख-वंचित होता है; इसलिए वह अपने शरीर को मिथ्या अभिप्रायपूर्वक आत्मारूप से समझता है।।१९० ।। (श्री समाधितंत्र , गाथा ७ का अर्थ, श्री पूज्यपादस्वामी) * इन्द्रियरूप द्वारों से अर्थात् इन्द्रिय रूप मुख से बाहर के पदार्थों के ग्रहण में रुका हुआ होने से वह बहिरात्मा-मूढ़ात्मा है। वह आत्मज्ञान से परान्मुख अर्थात् जीवस्वरूप के ज्ञान से बहिर्भूत है। ऐसा होता हुआ वह (बहिरात्मा) क्या करता है? अपने देह को आत्मरूप से मानता है अर्थात् अपना शरीर ‘वह ही मैं हूँ' ऐसी मिथ्या मान्यता करता है।।१९१।। (श्री समाधितंत्र, गाथा ७ की टीका , श्री प्रभाचंद्रजी) * इन्द्रियज्ञान वास्तव में ज्ञेय भी नहीं है । Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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