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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
परिणति से उपयोग को व्यावृत करके (-उस विपाक के अनुरूप परिणमन में से उपयोग का निवर्तन करके), मोही, रागी और द्वेषी न होने वाले ऐसे उस उपयोग को अत्यन्त शुद्ध आत्मा में ही निष्कपरूप से लीन करता है, तब उस योगी को-जो कि अपने निष्क्रिय चैतन्यरूप स्वरूप में विश्रांत है, वचन-मन-काया को नहीं भाता और स्वकर्मों मे व्यापार नहीं करता उसे-सकल शुभाशुभ कर्मरूप ईधन को जलाने में समर्थ होने से अग्निसमान ऐसा, परमपुरुषार्थ-सिद्धि के उपायभूत ध्यान प्रगट होता है।।१८५।।
(श्री पंचास्तिकाय, गाथा १४६ की टीका)
* प्रश्न :- पद्मनन्दी पंचविंशति में ऐसा कहा है कि-जो बुद्धि आत्मस्वरूप से निकलकर बाहर शास्त्रों में विचरती है, सो वह बुद्धि व्यभिचारिणी है ?
उत्तर :- यह सत्य कहा है, क्योंकि बुद्धि तो आत्मा की है, उसे छोड़कर परद्रव्य-शास्त्रों में अनुरागिनी हुई, इसलिये उसे व्यभिचारिणी ही कहा जाता है।।१८६ ।।
(श्री मोक्षमार्ग प्रकाशक, सातवां अधिकार, निश्चयभासी
प्रकरण, पृष्ठ नं. २०७ पं. श्री टोडरमल जी) * जो बुद्धि अपने चैतन्यरूपी जो कुलग्रह उससे निकली हुई है अर्थात् जो बाह्य शास्त्ररूपी वन में विहार करने वाली है और अनेक प्रकार के विकल्पों को धारण करने वाली है ऐसी वह बुद्धि नहीं किन्तु दुराचारिणी स्त्री के समान निकृष्ट है।।१८७।। (श्री पद्मनन्दी पंचविंशतिका , सद्बोध चन्द्रोदय अधिकार,
गाथा ३८ का अर्थ) * जिस प्रकार अपने घर से निकलकर बाह्य वनों में भ्रमण करने
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* इन्द्रियज्ञान संसार का मूल है*
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