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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
सुनिश्चलतया वसता है, उसके) उपरक्तता का अभाव होता है। उस अभाव से पौद्गलिक प्राणों की परम्परा अटक जाती है। इस प्रकार पौद्गलिक प्राणों का उच्छेद करने योग्य है।।१८२।।
(श्री प्रवचनसार जी, गाथा १५१ का भावार्थ)
* ( व्यवहार से कहे जाने वाले एकेन्द्रियादि तथा पृथ्वीकायकादि 'जीवों में ) इन्द्रियाँ जीव नहीं है और छह प्रकार की शास्त्रोक्त कायें भी जीव नहीं हैं; उनमें जो ज्ञान है वह जीव है ऐसी (ज्ञानी) प्ररूपणा करते हैं।।१८३ ।।
( श्री पंचास्तिकाय, गाथा १२१, श्री कुंदकुंदाचार्य)
* यह, व्यवहार जीवत्व के एकान्त की प्रतिपत्ति का खण्डन है ( अर्थात् जिसे मात्र व्यवहारनय से जीव कहा जाता है उसका वास्तव में जीवरूप से स्वीकार करना उचित नहीं ऐसा यहाँ समझाया हैं ) जो यह एकेन्द्रियादि तथा पृथ्वीकायिकादि 'जीव' कहे जाते हैं वे अनादि जीव पुद्गल का परस्पर अवगाह देखकर व्यवहारनय से जीव के प्राधान्य द्वारा ( –जीव को मुख्यता देकर) 'जीव' कहे जाते हैं। निश्चयनय से उनमें स्पर्शनादि इन्द्रियाँ तथा पृथ्वी - आदि कायें, जीव के लक्षणभूत चैतन्यस्वभाव के अभाव के कारण, जीव नहीं है; उन्हीं में जो स्व-पर की ज्ञप्ति रूप से प्रकाशित ज्ञान है वही, गुण-गुणी के कथंचित् अभेद के कारण, जीवरूप से प्ररूपित किया जाता है।।१८४ ।।
(श्री पंचास्तिकाय , गाथा १२१, की टीका) * शुद्ध स्वरूप में अविचलित चैतन्यपरिणति सो यथार्थ ध्यान है। वह ध्यान प्रगट होने की विधि अब कही जाती है-जब वास्तव में योगी, दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय का विपाक पुद्गल कर्म होने से उस विपाक को (अपने से भिन्न ऐसे अचेतन) कर्मों में समेट कर, तदनुसार
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* इन्द्रियज्ञान ज्ञान नहीं है, ज्ञेय है
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