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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
* अब पौद्गलिक प्राणों की संतति की निवृत्ति का अंतरंग हेतु समझाते हैं:
अन्वयार्थ :- [ यः ] जो [ इन्द्रियादिविजयीभूत्वा ] इन्द्रियादि का विजयी होकर [उपयोग आत्मकं] उपयोगमात्र आत्मा का [ध्यायति] ध्यान करता है, [ सः] वह [कर्मभिः ] कर्मों के द्वारा [ न रज्यते] रंजित नहीं होता; [तं] उसे [प्राणाः ] प्राण [ कथं ] कैसे [अनुचरंति ] अनुसरण कर सकते हैं ? ( अर्थात् उसके प्राणों का सम्बन्ध नहीं होता)।।१८०।।।
(श्री प्रवचनसार जी, गाथा १५१ का अन्वयार्थ, श्री कुंदकुंदाचार्य) * टीका :- वास्तव में पौद्गलिक प्राणों के संतति की निवृत्ति का अंतरंग हेतु पौद्गलिक कर्म जिसका कारण (-निमित्त) है ऐसी उपरक्तता का अभाव है। और वह अभाव , जो जीव समस्त इन्द्रियादिक परद्रव्यों के अनुसार परिणति का विजयी होकर, (अनेक वर्णों वाले) आश्रयानुसार सारी परिणति से व्यावृत्त भिन्न भिन्न जुदा ( पृथक् अलग) हुये स्फटिक मणि की भाँति, अत्यन्त विशुद्ध उपयोग मात्र अकेले आत्मा में सुनिश्चलतया वसता है, उस (जीव) के होता है।
यहाँ यह तात्पर्य है कि-आत्मा की अत्यन्त विभक्तता सिद्ध करने के लिये व्यवहार जीवत्व के हेतुभूत पौद्गलिक प्राण इस प्रकार उच्छेद करने योग्य हैं।।१८१।।
(श्री प्रवचनसार, गाथा १५१ की टीका , श्री अमृतचंद्राचार्य)
* भावार्थ :- जैसे अनेक रंगयुक्त आश्रयभूत वस्तु के अनुसार जो ( स्फटिक मणि का) अनेकरंगी परिणमन है, उससे सर्वथा व्यावृत्त हुये स्फटिक मणि के उपरोक्तता का अभाव है, उसी प्रकार अनेक प्रकार के कर्म व इन्द्रियादि के अनुसार जो (आत्मा का) अनेक प्रकार का विकारी परिणमन है, उससे सर्वथा व्यावृत्त हुये आत्मा के ( जो एक उपयोग मात्र आत्मा में
* प्रथम आत्मा को जान*
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