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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
हुआ पुनः भी अन्य पौद्गलिक कर्मों से बंधता है, इसलिये (१) पौद्गलिक कर्म के कार्य होने से, और (२) पौद्गलिक कर्म के कारण होने से प्राण पौद्गलिक ही निश्चित होते हैं।।१७६।।
__(श्री प्रवचनसार जी, गाथा १४८ की टीका , श्री अमृतचंद्राचार्य) * अब , प्राणों के पौद्गलिक कर्म का कारणत्व प्रगट करते हैं :
अन्वयार्थ :- [ यदि ] यदि [ जीवः ] जीव [ मोहप्रद्वेषाभ्यां ] मोह और द्वेष के द्वारा [ जीवयोः ] ( स्व तथा पर) जीवों के [ प्राणाबाधं करोति] प्राणों को बाधा पहुंचाते हैं, [ स: हि] तो पूर्वकथित् [ज्ञानावरणादिकर्मभिः बंधः] ज्ञानावरणादिक कर्मों के द्वारा बंध [भवति] होता है।।१७७।।
(श्री प्रवचनसार जी, गाथा १४९, श्री कुंदकुंदाचार्य)
* टीका :- पहले तो प्राणों से जीव कर्मफल को भोगता है; उसे भोगता हुआ मोह तथा द्वेष को प्राप्त होता है; और उनसे स्वजीव तथा परजीव के प्राणों को बाधा पहूँचाता है। वहाँ कदाचित् दूसरे के द्रव्य प्राणों को बाधा पहुँचाकर और कदाचित् बाधा न पहुँचाकर, अपने भाव प्राणों को तो उपरक्तता से ( अवश्य ही) बाधा पहुँचाता हुआ जीव ज्ञानावरणादि कर्मों को बाँधता है। इस प्रकार प्राण पौद्गलिक कर्मों के कारणत्व को प्राप्त होते हैं।।१७८ ।।
( श्री प्रवचनसार जी, गाथा १४९, की टीका, श्री अमृतचंद्राचार्य)
* भावार्थ :- द्रव्य प्राणों की परम्परा चलते रहने का अन्तरंग कारण अनादि पुद्गलकर्म के निमित्त से होने वाला जीव का विकारी परिणमन है। जब तक जीव देहादि विषयों के ममत्वरूप विकारी परिणमन को नहीं छोड़ता तब तक उसके निमित्त से पुनः पुनः पुद्गलकर्म बँधते रहते हैं और उससे पुनः पुनः द्रव्य प्राणों का सम्बन्ध होता रहता है।।१७९ ।।
(श्री प्रवचनसार जी, गाथा १५० का भावार्थ)
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*भेदों का पार नहीं है और अभेद का विस्तार नहीं है
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