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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
अन्वयार्थ :- तथा यह इन्द्रियज्ञान क्रमवर्ती है, अक्रमवर्ती नहीं है। क्योंकि वह एक व्यक्ति को विवक्षित अर्थ को छोड़कर अर्थान्तर ( अन्य अर्थ ) को विषय करने लगता है।
भावार्थ :- इन्द्रियजन्य ज्ञान, एक समय में एक विषय को विषय करके, और फिर उसे छोड़कर, दूसरे समय में दूसरे ही विषय को विषय करता है। परन्तु एकसाथ ( युगपद् ) भिन्न समयवर्ती विषयों को विषय नहीं करता है इसलिए वह क्रमवर्ती ही है, अक्रमवर्ती नहीं है।।१६६ ।।
(श्री पंचाध्यायी उत्तरार्थ गाथा ८३६, ८३७ )
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* अन्वयार्थ :- समव्याप्ति होने के कारण अभिन्न की तरह उन दोनों की—अर्थ से अर्थान्तर गति और योगसंक्रांति की यह वृत्ति ( पलटना ) अवश्य होती है-यह योगसंक्रांति उस इन्द्रियज्ञान के होने पर ही होती हैं, परंतु अतीन्द्रियज्ञान में नहीं होती हैं। योगसंक्रांति के होने पर ही अर्थ से अर्थान्तर रूप गति होती है और उसके सिवाय अर्थान्तर गति नहीं होती है। अर्थात् योगसंक्रांति होने पर अर्थान्तर गति ना होवे - ऐसा नहीं हो सकता। और अर्थान्तर गति होने पर योगसंक्रांति ना हो - ऐसा भी नहीं हो सकता। इसलिए योगसंक्रांति और अर्थ से अर्थान्तर गति में समव्याप्ति होने के कारण एक प्रकार से अद्वैत है।
भावार्थ :- योगसंक्रांति और इन्द्रियज्ञान अर्थात् अर्थ से अर्थान्तर गति इन दोनों में परस्पर समव्याप्ति है। जहाँ जहाँ योगसंक्रांति होती है वहाँ वहाँ ज्ञान सम्बन्धी अर्थान्तर गति भी होती है अथवा जहाँ जहाँ इन्द्रियज्ञान की अर्थान्तर गति होती है वहाँ वहाँ योगसंक्रांति भी अवश्य होती है, कारण कि ये दोनों परस्पर एक-दूसरे के अभाव में नहीं रहते हैं। इसलिए इन दोनों की व्याप्ति को समव्याप्ति बताया है । । १६७।। (श्री पंचाध्यायी उत्तरार्थ, गाथा ८३८ )
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* ज्ञानी ऐसा मानता है कि
मैं जीभ से नहीं चाखता हूँ*
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