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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है अविनाभावी पर्यायों के उल्लेख से ही उन शेष गुणों का निरूपण किया जाता है। इस प्रकार का ज्ञान का स्वलक्षणरूप सविकल्पपना तो क्षायिकज्ञान में भी है। किन्तु अर्थ से अर्थान्तराकार योगसंक्रातिरूप सविकल्पपना क्षायिक ज्ञान में नहीं है। ज्ञान के स्वलक्षणभूत विकल्पत्व में और क्षायोपशमिक ज्ञान के पर निमित्त से होने वाले योगसंक्रांतिरूप विकल्पत्व में बड़ा भारी अन्तर है। इसी विषय का खुलासा करते हैं।।१६४।। (श्री पंचाध्यायी उत्तरार्थ, गाथा ८३३) * अन्वयार्थ :- स्व और अपूर्व अर्थ को विशेष ग्रहण करना यह ज्ञान का लक्षण है। अर्थ एक है, तथा आत्मा को जो ग्रहण करना वह आकार कहलाता है। और यही सविकल्पता क्षायिक ज्ञान में होती है। भावार्थ :- केवलज्ञान में ज्ञान गुण तो “स्व” शब्द से ग्रहीत होता है तथा ज्ञान सिवाय बाकी के अनंतगुण “अपूर्वार्थ" शब्द से ग्रहीत होते हैं। और “ग्रहण” शब्द से आकार का बोध होता है। इस प्रकार ज्ञान के द्वारा अपने अनंत गुणों के ग्रहण को 'स्वापूर्वार्थ ग्रहणात्मक आकार' अथवा सविकल्पता कहते हैं। (देखो अध्याय २, गाथा ३९२ से ३९८ ) ।।१६५ ।। ( श्री पंचाध्यायी उत्तरार्थ , गाथा ८३४ ) * अन्वयार्थ :- इन्द्रियजन्य ज्ञान तो कहीं भी-योगसंक्रांति के बिना नहीं होता है। क्योंकि इन्द्रियजन्य ज्ञान की क्षण में भी अर्थ से अर्थान्तररूप संक्रांति होती रहती है। भावार्थ :- इन्द्रियजन्य ज्ञान में प्रतिसमय अर्थ से अर्थान्तररूप परिवर्तन होता ही रहता है; इसलिए इन्द्रियजन्य ज्ञान संक्रांति सहित होता है, कभी भी वह संक्रांति के बिना नहीं होता है। ७८ * ज्ञानी ऐसा मानता है कि – मैं नाक से नहीं सुंघता हूँ Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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