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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है * छद्मस्थों के उपयोगात्मक ज्ञान में ही योगसंक्रांति के निमित्त से होने वाला ज्ञान के विपरिणमनरूप विकल्प होता है, लाब्ध्यात्मक ज्ञान में नहीं, इसलिए स्वानुभूति की (ज्ञान चेतना की) लब्धि, उपयोगात्मक न होने से निर्विकल्प है।।१६८।। (श्री पंचाध्यायी उत्तरार्थ, गाथा ८५५ का भावार्थ ) * अन्वयार्थ :- वास्तव में स्वयं ज्ञानचेतनारूप जो शुद्ध स्वकीय आत्मा का उपयोग है वह संक्रांत्यात्मक न होने से निर्विकल्प रूप ही है। * भावार्थ :- जिस समय ज्ञानचेतनारूप शुद्ध आत्मोपयोग होता है उस समय उस उपयोग में अर्थ से अर्थान्तर-गति नहीं होती है। इसलिए उतने समय तक वह उपयोग भी निर्विकल्प ही है।।१६९ ।। (श्री पंचाध्यायी उत्तरार्थ, गाथा ८५६) * अन्वयार्थ :- ज्ञानोपयोग के स्वभाव की महिमा ही कुछ ऐसी है कि वह (ज्ञानोपयोग) प्रदीप की तरह स्व और पर उभय के आकार का युगपत् प्रकाशक है।।१७०।। (श्री पंचाध्यायी उत्तरार्थ, गाथा ८५८) * ऐसा ज्ञायक पुरुष तो प्रत्यक्ष साक्षात् विद्यमान दीसे है अर यह जहाँ तहाँ ज्ञान का प्रकाश मने (मुझे) दीसे है, शरीर कू दीसता नाहीं। मैं एक ज्ञान ही का स्वच्छ निर्मल पिण्ड बन्या हूँ।।१७१।। ( श्री ज्ञानानंद श्रावकाचार, ब्र. रायमल जी कृत मोक्ष अधिकार) * अन्वयार्थ :- [ यःहि] जो [चतुर्भि:प्राणैः ] चार प्राणों से [जीवति] जीता है, [ जीविष्यति ] जियेगा, [जीवितः पूर्व ] और पहले जीता था, [ सः जीव ] वह जीव है। [ पुनः ] फिर भी [प्राणाः] प्राण तो [पुद्गलद्रव्यैः ८० *ज्ञानी ऐसा मानता है कि - मैं स्पर्शइन्द्रिय से स्पर्श नहीं करता हूँ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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