________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
भावार्थ :- योग संक्रांति रूप विकल्प केवल क्षयोपशमजन्य इन्द्रियजनित ज्ञान में ही सम्भव है। क्योंकि स्वाभाविक अतीन्द्रिय क्षायिक ज्ञान में, संक्रांति के न होने से, वह योगसंक्रांतिरूप विकल्प नहीं होता है इससे यही अभिप्राय समझना चाहिए कि ज्ञान का इस प्रकार सविकल्प होना नैमित्तिक स्वरूप है वास्तविक नहीं है। अतः वह वास्तव में सम्यक्त्व का स्वरूप नहीं हो सकता है । ( 'विकल्प' विशेषक्षायोपशमिक ज्ञान को लागू पड़ता है परन्तु ज्ञान सामान्य का वह स्वलक्षणभूत नहीं है । देखो गाथा ९०९ ) ।।१६२।। (श्री पंचाध्यायी उत्तरार्थ गाथा ८३२ )
* 'विकल्प' शब्द के दो अर्थ होते हैं। एक तो - आकार, व्यवसाय निश्चय, स्व-परप्रकाशक तथा दूसरा - अर्थ से अर्थान्तर रूप होने वाली संक्रांति। उनमें से आकार - व्यवसायरूप विकल्प का अर्थ ज्ञान का स्वलक्षण है। इसलिए उसका यहाँ पर खण्डन नहीं किया गया है। किन्तु योगसंक्रांति के अनुसार छद्मस्थ-ज्ञानियों के ज्ञान में जो अर्थ से अर्थान्तररूप परिणमन होता है वह परीक्षा करने पर सम्यक्दर्शन के समान सम्यग्ज्ञान में भी सिद्ध नहीं होता है, क्योंकि वह ज्ञान का स्वरूप नहीं है। किन्तु ज्ञान के साथ होने वाली राग क्रिया का स्वरूप है। अब आगे इसी अर्थ का खुलासा करते हैं।
अन्वयार्थ :- और जो इस विषय में किन्हीं - स्थूलदृष्टि पुरुषों ने सम्यक्दर्शन और सम्यग्ज्ञान में सविकल्पपना कहा है वह उपचार से ही कहा है अतः यहाँ पर इस उपचार का जो कारण है उसकी ही वास्तव में अब कहते हैं।
"
भावार्थ :- किन्हीं किन्हीं आचार्यों ने स्थूल उपचारदृष्टि से सम्यक्दृष्टियों के सराग सम्यक्त्व और उनके सम्यग्ज्ञान में
७५
* परपदार्थ भिन्न हैं इसलिए जानने में नहीं आते *
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com