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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
अर्थसंक्रांतिरूप-सविकल्पपना कहा है वह मात्र उपचार से ही कहा है। इसलिए अब इस उपचार के प्रयोजन को यहाँ कहते हैं
अन्वयार्थ :- जिस क्षायोपशमिक ज्ञान को अर्थ से अर्थान्तर को विषय करने के कारण सविकल्प माना जाता है वह वास्तव में ज्ञान का स्वरूप नहीं है परन्तु निश्चय से उस ज्ञान के साथ में होने वाली राग की क्रिया है।
भावार्थ :- क्षायोपशमिक ज्ञान जो प्रत्येक अर्थपरिणामी होता रहता है, वह प्रत्येक अर्थपरिणामी होना वह कहीं ज्ञान का स्वरूप नहीं है परन्तु उस ज्ञान के साथ में होने वाली रागपरिणति का स्वरूप है। आगे इसी का खुलासा करते हैं।
अन्वयार्थ :- जैसेकि जो ज्ञान प्रत्येक अर्थ के प्रति मोहयुक्त, रागयुक्त अथवा द्वेषयुक्त होता रहता है यही ज्ञान का प्रत्येक अर्थसंबन्धी प्रत्यर्थपरिणामित्व (परिणामीपना) है।
भावार्थ :- संसारी जीवों के ज्ञान की जो रागद्वेषादिक के अनुसार प्रवृत्ति हो रही है-वही ज्ञान का प्रत्यर्थपरिणामीपना है। और इस प्रत्यर्थपरिणामित्व को ज्ञान का स्वलक्षणभूत विकल्प नहीं कह सकते हैं। किन्तु यह तो राग की क्रिया है। क्षायोपशमिक ज्ञान और बुद्धिपूर्वक रागादिक का छठवें गुणस्थान तक मात्र सहभाव पाया जाता है। इसलिए इस उपचार से उसे अर्थसंक्रांतिरूप विकल्प सहित कह देना, वो अलग ( दूसरी) बात है, परन्तु वास्तव में अर्थसंक्रांतिरूप-विकल्पत्व ज्ञान का धर्म नहीं कहा जा सकता है।
अन्वयार्थ :- स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से यह पूर्वोक्त-कथन सिद्ध होता है क्योंकि जैसे-रागी पुरुष का रागसहित ज्ञान, आकुलित होता है वैसे
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*ज्ञानी ऐसा मानता है कि – मैं आँख से रूप को नहीं देखता हूँ
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