________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
* यमियों को आत्मज्ञान से क्रमशः आत्मलब्धि होती है कि जिस आत्मलब्धि ने ज्ञान ज्योति द्वारा इन्द्रिय समूह के घोर अंधकार का नाश किया है तथा जो आत्मलब्धि कर्मवन से उत्पन्न दावानल की शिखाजाल का नाश करने के लिये उस पर सतत् समजलमयी धारा को तेजी से छोड़ती है - बरसाती है । ।१५७ ।।
( श्री नियमसार, कलश १८६ श्री पद्मप्रभमलधारि देव ) * और कैसी है आत्मज्योति ? “ उन्नीयमानं” चेतना लक्षण से जानी जाती है, इसलिये अनुमान गोचर भी है। अब दूसरा पक्ष - “ उद्योतमानं " प्रत्यक्ष ज्ञानगोचर है। भावार्थ इस प्रकार है- जो भेद बुद्धि करते हुए जीववस्तु चेतना लक्षण से जीव को जानती है । वस्तु विचारने पर इतना विकल्प भी झूठा है, शुद्ध वस्तु मात्र है। ऐसा अनुभव सम्यक्त्व है । । १५८ ।।
66
( श्री समयसार, कलश टीका - श्लोक - ८ टीका में से पांडे श्री राजमलजी ) * और कैसा होने से शुद्ध है ? सर्वभावांतरध्वंसिस्वभावत्वात् ” (सर्व) समस्त द्रव्यकर्म-भावकर्म-नोकर्म अथवा ज्ञेयरूप परद्रव्य ऐसे जो (भावांतर) उपाधि रूप विभाव भाव उनका (ध्वंसि ) मेटनशील है। निज-स्वरूप जिसका, ऐसा स्वभाव होने से शुद्ध है । । १५९ ।।
( श्री समयसार कलश टीका, कलश - १८ की टीका में से पांडे श्री राजमल जी )
* कोई प्रश्न करता है कि जो अनुभव को प्राप्त करते हैं वे अनुभव को प्राप्त करने से कैसे होते हैं ? उत्तर इस प्रकार है कि वे निर्विकार होते हैं, वही कहते हैं- “ त एव सन्ततं मुकुरवत् अविकाराः स्युः” (त एव) अर्थात् वे ही जीव ( सन्ततं ) निरन्तर ( मुकुरवत् ) दर्पन के समान
७३
* पर को नहीं जानना, और ज्ञायक को ही जानना और जानते रहना वो स्वभाव है *
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com