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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है खण्डन है। यद्यपि व्यवहार से एक समय में तीन काल सम्बन्धी पुद्गलादि द्रव्यगुणपर्यायों को जानने में सकल - विमल केवलज्ञानमयत्वादि विविध महिमाओं का धारण करने वाला है, तथापि वह भगवान, केवलदर्शनरूप तृतीय लोचनवाला होने पर भी, परम निरपेक्षपने के कारण निःशेषरूप से (सर्वथा) अंतर्मुख होने से केवल स्वरूपप्रत्यक्षमात्र व्यापार में लीन ऐसे निरंजन निज सहज दर्शन द्वारा सच्चिदानन्दमय आत्मा को निश्चय से देखता है ( परन्तु लोकालोक को नहीं ) ऐसा जो कोई भी शुद्ध अन्तः तत्व का वेदन करने वाला (जानने वाला, अनुभव करने वाला) परम जिनयोगीश्वर शुद्ध निश्चयनय की विवक्षा से कहता है उसे वास्तव में दूषण नहीं है ।। १५५ ।। ( श्री नियमसार, गाथा - १६६ टीका श्री पद्मप्रभमलधारिदेव ) — पश्यत्यात्मा सहजपरमात्मानमेकं विशुद्धं स्वान्तः शुद्धयावसथमहिमा धारमत्यन्तधीरम्। स्वात्मन्युच्चैरविचलतया सर्वदान्तर्निमग्नं तस्मिन्नैव प्रकृतिमहति व्यावहारप्रपंच: ।।२८२ ।। (निश्चय से) आत्मा सहज परमात्मा को देखता है कि जो परमात्मा एक है, विशुद्ध है, निज अन्तः शुद्धि का आवास होने से ( केवल ज्ञानदर्शनादि ) महिमा का धारण करने वाला है, अत्यन्त धीर है और निज आत्मा में अत्यन्त अविचल होने से सर्वदा अन्तर्मग्न है। स्वभाव से महान ऐसे उस आत्मा में लोकालोक को देखनेरूप व्यवहार विस्तार है ही नहीं । अर्थात् निश्चय से आत्मा में लोकालोक को देखनेरूप व्यवहार विस्तार है ही नही । । १५६ ।। (श्री नियमसार, कलश - २८२ श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वितीयावृति, १९७४, विक्रम संवत् २०३० ) ७२ * पर को जानना वो स्वभाव नहीं हैं* Please inform us of any errors on [email protected]
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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