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ગાથા-૩૨૦ मोक्ष का विचार चल रहा है, ऐसा ही सिद्धांत में लिखा हुआ कि “निष्क्रियः शुद्धपारिणामिक:' अर्थात् शुद्धपारिणामिक - भाव तो निष्क्रिय होता है। निष्क्रिय कहने का भी क्या अर्थ है ? रागादिमय-परिणति वाली एवं बंधकी कारणभूत क्रिया से रहित है तथा मोक्ष की कारणभूत जो क्रिया, शुद्धस्वरूप की भावनारूप परिणति है उससे भी रहित है। इससे यह जाना जाता है कि शुद्धपारिणामिकभाव ध्येयरूप है परंतु ध्यानरूप नहीं है क्योंकि विनाशशील है। जैसा कि योगीन्द्रदेव ने भी अपने परमात्मप्रकाश में लिखाहै -
___णवि उप्पज्जइ णवि मरइ बंधु ण मोक्खु करेइ। जिउ परमत्थेजोईया जिणवर-एउ भणेइ।' अर्थात् - हे योगी। सुन, परमार्थदृष्टि से देखने पर यह जीव न तो उपजता है, न मरता है, न बंध ही करता है, न मोक्ष ही प्राप्त करता है ऐसा भी जिनेन्द्र भगवान कहते हैं।
तात्पर्य यह है कि विवक्षा में ली हुई एकदेशशुद्धनय के आश्रित होने वाली भावना निर्विकार -स्वसंवेदन ही है लक्षण जिसका ऐसे क्षायोपशमिक ज्ञान से पृथक्पने के कारण यधपि एकदेश - व्यक्तिरूप है फिर भी ध्यान करने वाला पुरुष यही भावना करता है कि जो सभी प्रकार के आवरणों से रहित अखंड-एकप्रत्यक्षप्रतिभासमय तथा नाशरहित और शुद्धपारिणामिक लक्षणवाला निजपरमात्माद्रव्य है वही मैं हूं अपितु खंडज्ञानरूप मैं नहीं हूं, यह सब व्याख्यान यहाँ परस्पर की अपेक्षा को लिये हुये हैं जो आगम और अध्यात्मनय इन दोनो का विरोध नहीं करने से ही सिद्ध होता है। इस प्रकार विवेकी ज्ञानियों का समभ्कना चाहिये।
४यम नेत्र,तेम ४ शान नथी ।२६, नथी व सरे...!
જાણે જ કર્મોદય, નિરજરા, બંધ તેમજ મોક્ષને. ૩૨૦ ते ४ अर्तृत्व मोतृत्वमापने विशेष५ ६ ७३ छ:- (दिट्ठी सयं पि णाणं अकारयं तह अवेदयं चेव) वी ते नेत्र - इता ६श्य सेवी मनि३५. वस्तुने, સંધુફણ (સંધૂકણ) કરનાર પુરુષની માફક કરતું નથી અને, તપેલા લોખંડના પિંડની માફક, અનુભવરૂપે વેદતું નથી; તેવી રીતે શુદ્ધ જ્ઞાન પણ અથવા અભેદથી શુદ્ધજ્ઞાનપરિણત જીવ પણ પોતે શુદ્ધ - ઉપાદાનરૂપે કરતો નથી અને વેદતો નથી. अथवा पान्तर: “ दिट्ठी खयं पि णाणं" तेन व्याध्यान:- माहट ४ नहि પરંતુ ક્ષાયિકજ્ઞાન પણ નિશ્ચયથી કર્મોનું અકારક તેમજ અવેદક પણ છે.) તેવો होतो थडओ (शुद्धानपरित ७५)शंरे छे...? ( जाणदिय बंधमोक्खं) छे. डोने...? बंध -मोक्षने. मात्र बंध-भोक्षने नहि,(कम्मुदयं णिज्जरं चेव) शुभઅશુભરૂપ કર્મોદયને તથા સવિપાક- અવિપાકરૂપે ને સકામ - અકામરૂપે બે પ્રકારની
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