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ગાથા-૩૨૦ भोक्ता नहीं होता है उसी प्रकार ज्ञान भी बंध, मोक्ष , कर्मों के उदय तथा कर्मो की निर्जरा को जानता ही है, कर्ता-भोक्ता नहीं होता।। ३४३।। दृष्टा बने युगल लोचन देखते हैं, ना दृश्य-स्पर्श करते न हि हर्षते हैं। ज्ञानी अकारक अवेदक जानता है, त्यों बन्ध मोक्ष विधि को तज मानता है।।३४३।।
टीका-दिवी संयपि णाणं अकारयं तह अवेदयं चेव जैसे चक्षु अग्निरूप दृष्य को देखता है किन्तु जलाने वाले पुरुष के समान वह उसे जलाता नहीं है, तथा तप्तायमान लोहपिंड के समान वह उसे अनुभवरूप से वेदता भोक्ता भी नहीं है। वैसे ही शुद्धज्ञान भी अथवा अभेदविवक्षा से शुद्धज्ञान में परिणत हुआ जीव भी शुद्ध-उपादान रूप से [ अन्य द्रव्यों को] न करता ही है और न वेदता ही हैअनुभवता ही है। अथवा दूसा पाठ यह है दिवी खयंपि णाण इसका अर्थ यह है कि केवल दृष्टि ही नहीं किन्तु क्षायिकज्ञान भी निश्चयरूप से कर्मों का नहीं करने वाला और नहीं वेदनेवाला-अनुभवनेवाला होता है। ऐसा होता हुआ वह क्या करता है ? जाणदि य बंधमोक्खं बंध और मोक्ष को जानता है। केवल बंध-मोक्ष को ही नहीं किन्तु कम्मुदयं णिज्जरं चेव शुभाशुभरूप-कर्म के उदय को, तथा सविपाकअविपाकरूप अथवा सकाम और अकामरूप से होने वाली दो प्रकार की निर्जरा को भी जानता है। इस प्रकार शुद्धपारिणामिकरूप-परमभावका ग्राहक एवं जो उपादान स्वरूप है ऐसे शुद्धद्रव्यार्थिकनय के द्वारा कर्तापन, भोक्तापन, बंध, मोक्षादि के कारणभूत परिणाम से रहित यह जीव है ऐसा सूचित किया है। इस प्रकार समुदाय पातनिका में पीछे की चार गाथाओं द्वारा जीव के अकर्तापनगुण के व्याख्यान की मुख्यता से सामान्य वर्णन किया है। फिर चार गाथाओं में यह बताया है कि निश्चयसे शुद्ध-जीवके भी जो कर्मप्रकृतियों का बंध होता है वह अज्ञानका माहात्म्य है इस प्रकार अज्ञान की सामर्थ्य का विशेषरूप से वर्णन किया है। फिर चार गाथाओं में जीव के अभोक्तापन के गुण का व्याख्यान मुख्यता से है। इस कर्तापन-बंध-मोक्षादि का कारणभूत परिणाम का निषेध १२ गाथाओं में हुआ है जो कि शुद्धनिश्चयनय से किया गया है उसी का उपसंहार दो गाथाओं में हुआ है।। ३४३।।
इस प्रकार श्री जयसेनाचार्य की बनाई हुई शुद्धात्मानुभूति लक्षणवाली तात्पर्य नामकी श्री समयसारजी की व्याख्या के हिन्दी अनुवाद में मोक्षाधिकार से सम्बन्ध रखने वाली यह चूलिका समाप्त हुई। अथवा दूसरे व्याख्यान के द्वारा मोक्ष अधिकार समाप्त हुआ।
अब यहाँ पर विचार किया जाता है कि जीव के औपशमिक आदि पाँच
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