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छात्र – जब द्रव्य छह प्रकार के हैं तो हमें दिखाई केवल पुद्गल ही क्यों
देता है ? अध्यापक- क्योंकि इन्द्रियाँ रूप, रस आदि को ही जानती हैं और आत्मा आदि
वस्तुयें अरूपी हैं, अतः इन्द्रियाँ उनके ज्ञान में निमित्त नहीं हैं। छात्र - पूजा पाठ को धर्म द्रव्य कहते होंगे और हिंसादिक को अधर्म द्रव्य! अध्यापक- नहीं भाई! वे धर्म और अधर्म अलग बात है; ये धर्म और अधर्म तो
द्रव्यों के नाम है जो कि सारे लोक में तिल में तेल के समान फैले हुए हैं।
छात्र
- इनकी क्या परिभाषा है ?
अध्यापक- जिस प्रकार जल मछली के चलने में निमित्त हैं, उसी प्रकार स्वयं
चलते हुए जीवों और पुदगलों को चलने में जो निमित्त हो, वही धर्म द्रव्य है। तथा जैसे वृक्ष की छाया पथिकों को ठहरने में निमित्त होती है, उसी प्रकार गमनपूर्वक ठहरने वाले जीवों और पुद्गलों को ठहरने में जो निमित्त हो, वही अधर्म द्रव्य है।
छात्र - जब धर्म द्रव्य चलायेगा और अधर्म द्रव्य ठहरायेगा तो जीवों को बड़ी
परेशानी होगी?
प्रध्यापक- वे कोई चलाते ठहराते थोड़े ही हैं। जब जीव और पुद्गल स्वयं
चलें या ठहरें तो मात्र निमित्त होते हैं। छात्र - आकाश तो नीला-नीला साफ दिखाई देता ही है, उसे क्या
समझना ?
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