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पंचमहव्वयजुत्तो तिहिं गुत्तिहिं जो स संजदो होई । णिग्गंथमोक्खमग्गो सो होदि हु वंदणिज्जो य ।। २० ।।
पंचमहाव्रतयुक्तः तिसृभिः गुप्तिभिः यः स संयतो भवति । निर्ग्रथमोक्षमार्गः स भवति हि वन्दनीयः च ।। २० ।।
अर्थः--जो मुनि पंच महाव्रत युक्त हो और तीन गुप्ति संयुक्त हो वह संयत है, संयमवान है और निर्ग्रन्थ मोक्षमार्ग है तथा वह ही प्रगट निश्चयसे वंदने योग्य है।
भावार्थ:--अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह - इन पाँच महाव्रत सहित हो और मन, वचन, कायरूप तीन गुप्ति सहित हो वह संयमी है, वह निर्ग्रन्थ स्वरूप है, वह ही वंदने योग्य है। जो कुछ अल्प - बहुत परिग्रह रखे सो महाव्रती संयमी नहीं है, यह मोक्षमार्ग नहीं है और गृहस्थके समान भी नहीं है ।। २० ।।
आगे कहते हैं कि पूर्वोक्त एक भेष तो मुनिका कहा अब दूसरा भेष उत्कृष्ट श्रावकका इस प्रकार कहा है:
दुइयं च उत्त लिंगं उक्किट्ठे अवरसावयाणं च । भिक्खं भमेइ पत्ते समिदी भासेण मोणेण ।। २१ ।।
द्वितीयं चोक्तं लिंगं उत्कृष्टं अवरश्रावकाणां च । भिक्षां भ्रमति पात्रे समिति भाषया मौनेन ।। २१ ।।
[ अष्टपाहुड
अर्थ:--द्वितीय लिंग अर्थात् दूसरा भेष उत्कृष्ट श्रावक जो गृहस्थ नहीं है इसप्रकार उत्कृष्ट श्रावकका कहा है वह उत्कृष्ट श्रावक ग्यारहवीं प्रतिमा का धारक है, वह भ्रमण करके भिक्षा द्वारा भोजन करे और पत्ते अर्थात् पात्रमें भोजन करे तथा हाथमें करे और समिति रूप प्रवर्तता हुआ भाषासमिति रूप बोले अथवा मौन से रहे ।
त्रण गुप्ति, पंचमहाव्रते जे युक्त, संयत तेह छे; निर्ग्रन्थ मुक्तिमार्ग छे ते; ते खरेखर वंद्य छे। २० ।
बीजुं कह्युं छे लिंग उत्तम श्रावकोनुं शासने; ते वाक्समिति वा मौनयुक्त सपात्र भिक्षाटन करे । २१ ।
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