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सूत्रपाहुड]
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इच्छायारमहत्थं सुत्तठिओ जो हु छंडए कम्म। ठाणे ट्ठियसम्मत्तं परलोयसुहंकरो होदि।।१४।।
इच्छाकारमहार्थं सूत्रस्थितः यः स्फुटं त्यजति कर्म। स्थाने स्थित्तसम्यक्त्वः परलोक सुखंकरः भवति।।१४।।
अर्थ:--जो पुरुष जिनसूत्र में तिष्ठता हुआ इच्छाकार शब्दके महान प्रधान अर्थको जानता है और स्थान जो श्रावकके भेदरूप प्रतिमाओंमें तिष्ठता हुआ सम्यक्त्व सहित वर्तता है, आरम्भादि कर्मोको छोड़ता है, वह परलोक में सुख करने वाला होता है।
भवार्थ:--उत्कृष्ट श्रावक को इच्छाकार कहते हैं सो जो इच्छाकारके प्रधान अर्थ को जानता है ओर सूत्र अनुसार सम्यक्त्व सहित आरंभादिक छोड़कर उत्कृष्ट श्रावक होता है वह परलोकमें स्वर्ग सुख पाता है।।१४।।
आगे कहते हैं कि-जो इच्छाकार के प्रधान अर्थको नहीं जानता और अन्य धर्मका आचरण करता है वह सिद्धिको नहीं पाता है:--
अह पुण अप्पा णिच्छदि धम्माइं करेइ णिरवसेसाइं। तह विण पावदि सिद्धिं संसारत्थो पुणो भणिदो।।१५।।
अथ पुनः आत्मानं नेच्छति धर्मान् करोति निरवेशषान्। तथापि न प्राप्नोति सिद्धिं संसारस्थ: पुन: भणितः।।१५।।
अर्थ:--' अथ पुनः' शब्दका ऐसा अर्थ है कि-पहली गाथामें कहा था कि जो इच्छाकारके प्रधान अर्थको जानता है वह आचारण करके स्वर्गसुख पाता है। वही अब फिर कहते हैं कि इच्छाकारका प्रधान अर्थ आत्माको चाहना है, अपने स्वरूपमें रुचि करना है। वह इसको जो इष्ट नहीं करता है और अन्य धर्मके समस्त आचरण करता है तो भी सिद्धि अर्थात् मोक्षको नहीं पाता है और उसको संसार में ही रहने वाला कहा है।
सूत्रस्थ सम्यग्दृष्टियुत जे जीव छोडे कर्मने, 'ईच्छामि' योग्य पदस्थ ते परलोकगत सुखने लहे। १४ ।
पण आत्माने इच्छया विना धर्मो अशेष करे भले, तोपण लहे नहि सिद्धिने, भवमां भमे-आगम कहे। १५ ।
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