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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ५६) । अष्टपाहुड ये द्वाविंशति परीषहान् सहते शक्तिशतैः संयुक्ताः। ते भवंति वंदनीयाः कर्मक्षय निर्जरा साधवः ।। १२ ।। अर्थ:--जो साधु मुनि अपनी शक्तिके सैकड़ों से युक्त होते हुए क्षुधा, तृषाधिक बाईस परिषहोंको सहते हैं और कर्मोंकी क्षयरूप निर्जरा करने में प्रवीण हैं वे साध वंदने योग्य हैं। भावार्थ:--जो बड़ी शक्तिके धारक साधु हैं वे परीषहों को सहते हैं, परीषह आने पर अपने पदसे च्युत नहीं होते हैं। उनके कर्मों की निर्जरा होती है और वे वन्दने योग्य हैं।।१२।। आगे कहते हैं कि जो दिगम्बर मुद्रा सिवाय कोई वस्त्र धारण करें, सम्यग्दर्शन-ज्ञान से युक्त हों वे इच्छाकार करने योग्य हैं:-- अवसेसा जे लिंगी दंसणणाणेण सम्म संजुत्ता। चेलेण य परिगहिया ते भणिया इच्छणिज्जा य।।१३।। अवशेषा ये लिंगिनः दर्शनज्ञानेन सम्यक् संयुक्ता। चेलेन च परिगृहीताः ते भणिता इच्छाकारे योग्यः ।। १३।। अर्थ:--दिगम्बर मुद्रा सिवाय जो अविशेष लिंगी भेष संयुक्त और सम्यक्त्व सहित दर्शन-ज्ञान संयुक्त हैं तथा वस्त्र से परिगृहीत हैं, वस्त्र धारण करते हैं वे इच्छाकार करने योग्य हैं। भावार्थ:--जो सम्यर्शन-ज्ञान संयुक्त हैं और उत्कृष्ट श्रावकका भेष धारण करते हैं, एक वस्त्र मात्र परिग्रह रखते हैं वे इच्छाकार करने योग्य हैं इसलिये 'इच्छामि' इसप्रकार कहते हैं। इसका अर्थ है कि- मैं आपको इच्छू हूँ, चाहता हूँ ऐसा इच्छामि शब्दका अर्थ है। इसप्रकारसे इच्छाकार करना जिनसूत्र में कहा है।।१३।। आगे इच्छाकार योग्य श्रावक का स्वरूप कहते हैं:-- अवशेष लिंगी जेह सम्यक् ज्ञान-दर्शनयुक्त छे, ने वस्त्र धारे जेह, ते छे योग्य इच्छाकारने। १३ । Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
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