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________________ ५४ ] Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates उक्किट्ठसीहचरियं बहुपरियम्मो य गरुयभारो य । बो विहरइ सच्छंदं पावं गच्छंदि होदि मिच्छतं ॥९॥ उत्कृष्ट सिंहचरितः बहुपरिकर्मा च गुरुभारश्च। यः विहरति स्वच्छंदं पापं गच्छति भवति मिथ्यात्वम् ।।९।। अर्थः--जो मुनि होकर उत्कृष्ट, सिंह के समान निर्भय हुआ आचरण करता है और बहुत परिकर्म अर्थात् तपश्चरणादि क्रिया विशेषोंसे युक्त है तथा गुरुके भार अर्थात् बड़ा पदस्थरूप है, संघ–नायक कहलाता है परन्तु जिनसूत्र से च्युत होकर स्वच्छंद प्रवर्तता है तो वह पाप ही को प्राप्त होता है और मिथ्यात्वको प्राप्त होता है। भावार्थ:--जो धर्मका नायकपना लेकर, गुरु बनकर, निर्भय हो तपश्चरणादिक से बड़ा कहलाकर अपना संप्रदाय चलाता है, जिनसूत्रसे च्युत होकर स्वेच्छाचारी प्रवर्तता है तो वह पापी मिथ्यादृष्टि ही है, उसका प्रसंग भी श्रेष्ठ नहीं है ।। ९ ।। आगे कहते हैं कि--जिनसूत्र में ऐसा मोक्षमार्ग कहा है णिच्चेलपाणिपत्तं उवइद्वं परमजिणवरिंदेहिं । एक्को वि मोक्खमग्गो सेसा य अमग्गया सव्वे ।। १० ।। निश्चेलपाणिपात्रं उपदिष्टं परमजिनवरेन्द्रैः । एकोऽपि मोक्षमार्गः शेषाश्च अमार्गा सर्वे ।। १० ।। [ अष्टपाहुड अर्थः--जो निश्चेल अर्थात् वस्त्ररहित दिगम्बर मुद्रास्वरूप और पाणिपात्र अर्थात् हाथरूपी पात्र में खड़े-खड़े आहार करना, इसप्रकार एक अद्वितीय मोक्षमार्ग तीर्थंकर परमदेव जिनेन्द्रने उपदेश दिया है, इसके सिवाय अन्य रीति सब अमार्ग हैं। स्वच्छंद वर्ते तेह पामे पापने मिथ्यात्वने, गुरुभारधर, उत्कृष्ट सिंहचरित्र, बहुतपकर भले । ९ । निश्चेल-करपात्रत्व परमजिनेन्द्रथी उपदृष्टि छे; ते ओक मुक्तिमार्ग छे ने शेष सर्व अमार्ग छे । १० । Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
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