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[५३ आगे कहते हैं कि जिन सूत्र से भ्रष्ट हरिहरादिक के तुल्य हो तो भी मोक्ष नहीं पाता है---
हरिहरतुल्लो वि णरो, सग्गं गच्छेइ एइ भवकोडी। तइ वि ण पावइ सिद्धिं संसारत्थो पुणो भणिदो।।८।।
हरिहरतुल्योऽपि नरः स्वर्गं गच्छति एति भवकोटिः। तथापि न प्राप्नोति सिद्धिं संसारस्थः पुनः भणितः।।८।।
अर्थ:--जो मनुष्य सूत्र के अर्थ पद से भ्रष्ट है वह हरि अर्थात् नारायण, हर अर्थात् रुद्र, इनके समान भी हो, अनेक ऋद्धि संयुक्त हो, तो भी सिद्धि अर्थात् मोक्ष को प्राप्त नहीं होता है। यदि कदाचित् दान पूजादिक करके पुण्य उपार्जन कर स्वर्ग चला जावे तो भी वहाँ से चय कर, करोड़ों भव लेकर संसार ही में रहता है, --इस प्रकार जिनागम में कहा है।
भावार्थ:--श्वेताम्बरादिक इसप्रकार कहते हैं कि--गृहस्थ आदि वस्त्र सहित को भी मोक्ष होता है--इसप्रकार सूत्र में कहा है। उसका इस गाथा में निषेध का आशय है कि--जो हरिहरादिक बड़ी सामर्थ्य के धारक भी हैं तो भी वस्त्र सहित तो मोक्ष नहीं पाते हैं। श्वेताम्बरोंने सूत्र कल्पित बनाये हैं, उनमें यह लिखा है सो प्रमाण भूत नहीं है; वे श्वेताम्बर, जिन सूत्र के अर्थ-पद से च्युत हो गये हैं, ऐसा जानना चाहिये।।८।।
आगे कहते हैं कि--जो जिनसूत्र से च्युत हो गये हैं वे स्वच्छंद होकर प्रवर्तते हैं, वे मिथ्यादृष्टि हैं:--
हरितुल्य हो पण स्वर्ग पामे, कोटि कोटि भवे भमे, पण सिद्धि नव पामे, रहे संसारस्थित-आगम कहे। ८।
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