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। अष्टपाहुड
जं सुत्तं जिणउत्तं ववहारो तह य जाण परमत्थो। तं जाणिऊण जोई लहइ सुहं खवइ मलपुंज।।६।।
यत्सूत्रं जिनोक्तं व्यवहारं तथा च ज्ञानीहि परमार्थम्। तं ज्ञात्वा योगी लभते सुखं क्षिपते मलपुंज।।६।।
अर्थ:--जो जिन भाषित सूत्र है, वह व्यवहार तथा परमार्थरूप है, उसको योगीश्वर जानकर सुख पाते हैं और मलपुंज अर्थात् द्रव्यकर्म , भावकर्म, नोकर्मका क्षेपण करते हैं।
भावार्थ:--जिन सूत्र को व्यवहार-परमार्थरूप जानकर योगीश्वर (मुनि) कर्मों का नाश करके अविनाशी सुखरूप मोक्षको पाते हैं। परमार्थ (निश्चय) और व्यवहार इनका संक्षेप स्वरूप इसप्रकार है--जिन आगम की व्याख्या चार अनुयोगरूप शास्त्रोंमें दो प्रकार से सिद्ध है: एक आगमरूप और दूसरा अध्यात्मरूप। वहाँ सामान्य-विशेष रूप से सब पदार्थों का प्ररूपण करते हैं सो आगमरूप है, परन्तु जहाँ एक आत्मा ही के आश्रय निरूपण करते हैं सो अध्यात्म है। अहेतुमत् और हेतुमत् ऐसे भी दो प्रकार हैं, वहाँ सर्वज्ञ की आज्ञा ही से केवल प्रमाणता मानना अहेतुमत् है और प्रमाण -नयके द्वारा वस्तुकी निर्बाध सिद्धि करके मानना सो हेतुमत् है। इसप्रकार दो प्रकार आगम में निश्चय-व्यवहार से व्यख्यान है, वह कुछ लिखने में आ रहा है।
जब आगमरूप सब पदार्थोंकी व्याख्यान पर लगाते हैं तब तो वस्तुका स्वरूप सामान्यविशेषरूप अनन्त धर्म स्वरूप है वह ज्ञानगम्य है, इनमें सामान्यरूप तो निश्चयनय का विषय है
और विशेषरूप जितने हैं उनको भेदरूप करके भिन्न भिन्न कहे वह व्यवहारनय का विषय है, उसको द्रव्य-पर्यायस्वरूप भी कहते हैं। जिस वस्तु को विवक्षित करके सिद्ध करना हो उसके द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावसे जो कुछ सामान्य- विशेषरूप वस्तुका सर्वस्व हो वह तो, निश्चयव्यवहार से कहा है वैसे, सिद्ध होता है और उस वस्तुके कुछ अन्य वस्तु के संयोग जो अवस्था हो उसको उस वस्तुरूप कहना भी व्यवहार है, इसको उपचार भी कहते हैं। इसका उदाहरण ऐसे है--जैसे एक विवक्षित घट नामक वस्तु पर लगावें तब जिस घटका द्रव्यक्षेत्र-काल-भावरूप सामान्य -विशेषरूप जितना सर्वस्व है उतना कहा, वैसे निश्चय–व्यवहार से कहना वह तो
जिन-उक्त छे जे सूत्र ते व्यवहार ने परमार्थ छे, ते जाणी योगी सौख्यने पामे, दहे मलपुंजने। ६।
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