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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates २४] [अष्टपाहुड भावार्थ:--भले-बुरे मार्गको जानता है तब अनादि संसार से लगाकर जो मिथ्याभावरूप प्रकृति है वह पलटकर सम्यक्स्वभावरूप प्रकृति होती है; उस प्रकृति से विशिष्ट पुण्यबंधकरे तब अभ्युदयरूप तीर्थंकरादि की पदवी प्राप्त करके निर्वाण को प्राप्त होता है ।।१६।। आगे, कहते हैं कि ऐसा सम्यक्त्व जिनवचन से प्राप्त होता है इसलिये वे ही सर्व दुःखोंको हरने वाले हैं :-- जिणवयणमोसहमिणं विसयसुहविरेयणं अमिदभूदं। जरमरणवाहिहरणं खयकरणं सव्वदुक्खाणं ।।१७।। जिनवचनमौषधमिदं विषयसुखविरेचनममृतभूतम्। जरामरणव्याधिहरणक्षयकरणं सर्वदुःखानाम्।।१७।। अर्थ:--यह जिनवचन हैं सो औषधि हैं। कैसी औषधि है ? –कि इन्द्रिय विषयोंमें जो सुख माना है उसका विरेचन अर्थात् दूर करने वाले हैं। तथा कैसे हैं ? अमृतभूत अर्थात् अमृत समान हैं और इसलिये जरामरण रूप रोगको हरनेवाले हैं, तथा सर्व दुःखोंका क्षय करने वाले भावार्थ:--इस संसार में प्राणी विषय सुखोंका सेवन करतें हैं जिनसे कर्म बँधते हैं और उससे जन्म-जर-मरणरूप रोगोंसे पीड़ित होते हैं; वहाँ जिन वचनरूप औषधि ऐसी है जो विषयसुखोंसे अरुचि उत्पन्न करके उसका विरेचन करती है। जैसे -गरिष्ट आहार से जब मल बढ़ता है तब ज्वरादि रोग उत्पन्न होते हैं और तब उसके विरेचन को हरड़ आदि औषधि उपकारी होती है, उसीप्रकार उपकारी हैं। उन विषयोंसे वैराग्य होने पर कर्म बन्ध नहीं होता और तब जन्म-जरा-मरण रोग नहीं होते तथा संसारके दुःख का अभाव होता है। इसप्रकार जिनवचनोंको अमृत समान मानकर अंगीकार करना ।।१७।। जिनवचनरूप दवा विषयसुखरेचिका, अमृतमयी, छे व्याधि-मरण-जरादिहरणी, सर्व दुःख विनाशिनी। १७ । Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
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