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[अष्टपाहुड हमारे ऊपर उपद्रव करेगा; इसप्रकार भय से विनय करते हैं। तथा गारव तनि प्रकार कहा है;-रसगारव, ऋद्धिगारव, सातागारव। वहाँ रसगारव तो ऐसा है कि -मिष्ट, इष्ट, पुष्ट भोजनादि मिलता रहे तब उससे प्रमादी रहता है; तथा ऋद्धिगारव ऐसा है कुछ तप के प्रभाव आदि से ऋद्धिकी प्राप्ति हो उसका गौरव आ जाता है, उससे उद्धत. प्रमादी रहता है। सातागारव ऐसा कि शरीर निरोग हो, कुछ क्लेश का कारण न आये तब सुखीपना आ जाता है, उसमें मग्न रहते हैं -इत्यादिक गारवभाव की मस्ती से भले-बुरे का विचार नहीं करता तब दर्शनभ्रष्ट की भी विनय करने लग जाता है। इत्यादि निमित्तसे दर्शनभ्रष्ट की विनय करे तो उसमें मिथ्यात्वका अनुमोदन आता है; उसे भला जाने तो आप भी उसी समान हुआ, तब उसके बोधी कैसे कही जाये? ऐसा जानना ।।१३।।
दुविहं पि गंथचायं तीसु वि जोएसु संजमो ठादि। णाणम्मि करणसुद्धे उब्भसणे दंसणे होदि।।१४।।
द्विविधः अपि ग्रन्थत्यागः त्रिषु अपि योगेषु संयमः तिष्ठति। ज्ञान करणशुद्धे उद्भभोजने दर्शनं भवति।।१४।।
अर्थ:--जहाँ बाह्याभ्यांभेदसे दोनों प्रकारके परिग्रहका त्याग हो और मन-वचन-काय ऐसे तीनों योगोंमें संयम हो तथा कृत-कारित-अनुमोदना ऐसे तीन करण जिसमें शुद्ध हों वह ज्ञान हो, तथा निर्दोष जिसमें कृत, कारित, अनुमोदना अपनेको न लगे ऐसा, खड़े रहकर पाणिपात्र में आहार करें, इसप्रकार मूर्तिमंत दर्शन होता है।
भावार्थ:--यहाँ दर्शन अर्थात् मत है; वहाँ बाह्य वेश शुद्ध दिखाई दे वह दर्शन; वही उसके अंतरंग भाव को बतलाता है। वहाँ बाह्य परिग्रह अर्थात् धन-धान्यादिक और अंतरंग परिग्रह मिथ्यात्व-कषायादि, वे जहाँ नहीं हों, यथाजात दिगम्बर मूर्ति हो, तथा इन्द्रिय-मन को वष में करना, त्रस-स्थावर जीवोंकी दया करना, ऐसे संयमका मन-वचन-काय द्वारा पालन हो और ज्ञान में विकार करना, कराना, अनुमोदन करना-ऐसे तीन कारणोंसे विकार न हो और निर्दोष पाणिपात्रमें खड़े रहकर आहार लेना इस प्रकार दर्शन की मूर्ति है वह जिनदेव का मत है, वही वंदन-पूजन योग्य है। अन्य पाखंड वेश वंदना-पूजा योग्य नहीं है ।। १४ ।।
ज्यां ज्ञान ने संयम त्रियोगे, उभय परिग्रहत्याग छे, जे शुद्ध स्थितिभोजन करे, दर्शन तदाश्रित होय छ। १४ ।
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