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[अष्टपाहुड इसलिये मिथ्यात्व विषयरूप मल को दूर करके इसकी भावना करे, इसका एकाग्रता से ध्यान करे तो कर्मों का नाश करे, अनन्तचतुष्टय प्राप्त करके मुक्त हो शुद्धात्मा होता है, यहाँ सुवर्ण का तो दृष्टांत है वह जानना।। ९ ।।
आगे कहते हैं कि जो ज्ञान पाकर विषयासक्त होता है वह ज्ञान का दोष नहीं है, कुपुरुष का दोष है:---
णाणस्स णत्थि दोसो कुप्पुरिसाणं वि मंदबुद्धीणं। जे णाणगव्विदा होऊणं विसएसु रज्जति।।१०।।
ज्ञानस्य नास्ति दोष: कापुरुषस्यापि मंदबुद्धेः। ये ज्ञानगर्विताः भूत्वा विषयेषु रज्जन्ति।।१०।।
अर्थ:--जो पुरुष ज्ञान गर्वित होकर ज्ञान मद से विषयों में रंजित होते हैं सो यह ज्ञान का दोष नहीं है, वे मंदबुद्धि कुपुरुष हैं उनका दोष है।
भावार्थ:--कोई जाने की ज्ञान से बहुत पदार्थों को जाने तब विषयों में रंजायमान होता है सो यह ज्ञान का दोष है, यहाँ आचार्य कहते हैं कि-- ऐसे मत जानो, ज्ञान प्राप्त करके विषयों में रंजायमान होता है सो यह ज्ञान का दोष नहीं है--यह पुरुष मंदबुद्धि है और कुपुरुष है उसका दोष है, पुरुष का होनहार खोटा होता है तब बुद्धि बिगड़ जाती है, फिर ज्ञान को प्राप्त कर उसके मद में मस्त हो विषय-कषायों में आसक्त हो जाता है तो यह दोष-अपराध पुरुष का है. ज्ञान का नहीं है। ज्ञान का कार्य तो वस्त को जैसी हो वैसी बता देना ही है, पीछे प्रवर्तना तो पुरुष का कार्य है, इसप्रकार जानना चाहिये।। १०।।
आगे कहते हैं कि पुरुष को इस प्रकार निर्वाण होता है:---
णाणेण दंसणेण य तवेण चरिएण सम्मसहिएण। होहदि परिणिव्वाणं जीवानां चरित सुद्धाणं ।।११।।
जे ज्ञानथी गर्वित बनी विषयो महीं राचे जनो. ते ज्ञाननो नहि दोष, दोष कुपुरुष मंदमति तणो। १०।
सम्यक्त्वसंयुत ज्ञान दर्शन, तप अने चारित्रथी, चारित्रशुद्ध जीवो करे उपलब्धि परिनिर्वाणनी। ११ ।
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