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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates लिंगपाहुड] [३५९ भावार्थ:-- गृहस्थों से तो बारंबार लालपाल रक्खे और शिष्यों से बहुत सनेह रक्खे, तथा मुनिकी प्रवृत्ति आवश्यक आदि कुछ करे नहीं, गुरुओं के प्रतिकूल रहे, विनयादिक करे नहीं ऐसा लिंगी पशु समान है, उसको साधु नहीं कहते।। १८ ।। आगे कहते हैं कि जो लिंग धारण करके पूर्वोक्त प्रकार प्रवर्तता है वह श्रमण नहीं है ऐसा संक्षेप से कहते हैं:--- एवं सहिओ मुणिवर संजदमज्झम्मि वट्टदे णिच्चं। बहुलं पि जाणमाणो भावविणट्ठो ण सो समणो।।१९।। एवं सहितः मुनिवर! संयतमध्ये वर्त्तते नित्यम्। बहुलमपि जानन् भावविनष्ट: न सः श्रमणः।। १९ ।। अर्थ:---एवं अर्थात् पूर्वोक्त प्रकार प्रवृत्ति सहित जो वर्तता है वह हे मुनिवर! यदि ऐसा लिंगधारी संयमी मुनियों के मध्य भी निरन्तर रहता है और बहुत शास्त्रोंको भी जानता है तो भी भावोंसे नष्ट है, श्रमण नहीं है। भावार्थ:--ऐसा पर्वोक्त प्रकार लिंगी जो सदा मनियों में रहता है और बहत शास्त्रों को जानता है तो भी भाव अर्थात् शुद्ध दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप परिणाम से रहित है, इसलिये मुनि नहीं है, भ्रष्ट है, अन्य मुनियों के भाव बिगाड़ने वाला है।। १९ ।। आगे फिर कहते हैं कि जो स्त्रियों का संसर्ग बहुत रखता है वह भी श्रमण नहीं है:-- दसणणाण चरित्ते महिलावग्गम्मि देदि वीसहो। पासत्थ वि हु णियट्ठो भावविणट्ठो ण सो समणो।।२०।। ईम वर्तनारो संयतोनी मध्य नित्य रहे भले. ने होय बहुश्रुत, तोय भावविनष्ट छ, नहि श्रमण छ। १९ । स्त्रीवर्गमा विश्वस्त दे छे ज्ञान-दर्शन-चरण जे, पार्श्वस्थथी पण हीन भावविनष्ट छ, नहि श्रमण छ। २० । Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
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