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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ३५८/ । अष्टपाहुड रागं करेदि णिच्चं महिलावग्गं परं च दूसेदि। दंसणणाणविहीणो तिरिक्खजोणी ण सो समणो।।१७।। रागं करोति नित्यं महिलावर्गं पर च दूषयति। दर्शनज्ञानविहीनः तिर्यगयोनि: न स: श्रमणः।।१७।। अर्थ:--जो लिंग धारण करके स्त्रियों के समूह के प्रति तो निरंतर राग-प्रीति करता है और पर जो कोई अन्य निर्दोष हैं उनको दोष लगाता है वह दर्शन-ज्ञानरहित है, ऐसा लिंगी तिर्यंचयोनि है, पशु समान है, अज्ञानी है, श्रमण नहीं है। भावार्थ:--लिंग धारण करनेवाले के सम्यग्दर्शन-ज्ञान होता है और परद्रव्यों से रागद्वेष नहीं करनेवाला चारित्र होता है। वहाँ जो स्त्री समूह से तो राग-प्रीति करता है और अन्यके दोष लगाकर द्वेष करता है, व्यभिचारी का सा स्वभाव है, तो उसके कैसा दर्शनज्ञान ? और कैसा चारित्र ? लिंग धारण करके लिंग के योग्य आचरण करना था वह नहीं किया तब अज्ञानी पशु समान ही है, श्रमण कहलाता है वह आप भी मिथ्यादृष्टि है अन्य को भी मिथ्यादृष्टि करनेवाला है, ऐसे का प्रसंग भी युक्त नहीं है।।१७।। आगे फिर कहते हैं:--- पव्वज्जहीणगहिणं णेहं सीसम्मि बट्टदे बहुसो। आयारविणयहीणो तिरिक्खजोणी ण सो समणो।। १८ ।। प्रव्रज्याहीनगृहिणि स्नेहं शिष्ये वर्तते बहुशः। आचारविनयहीनः तिर्यंगयोनि: न स: श्रमणः।। १८ ।। अर्थ:-- जो लिंगी 'प्रवज्या-हीन' अर्थात् दीक्षा-रहित गृहस्थों पर और शिष्यों पर बहुर स्नेह रखता है और आचार अर्थात् मुनियों की क्रिया और गुरुओं के विनय से रहित होता है वह तिर्यंचयोनि है, पशु है, अज्ञानी है, श्रमण नहीं है स्त्रीवर्ग पर नित राग करतो, दोष दे छे अन्यने, दगज्ञानथी जे शून्य, ते तिर्यंचयोनि, न श्रमण छ। १७ । दीक्षविहीन गृहस्थ ने शिष्ये धरे बह स्नेह जे, आचार-विनयविहीन, ते तिर्यंचयोनि. न श्रमण छ। १८ । Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
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