________________
Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
१०
[अष्टपाहुड
करता है और उसका फल शुभ कर्मबन्ध है, किन्तु उसकी वह वांछा नहीं करता। व्रतादिक को स्वरूपका साधक जानकर उसका आचरण करता है, कर्मके फल की वांछा नहीं करता। -ऐसा नि:कांक्षित अङ्ग है ।।२।।
अपने में अपने गुण की महत्ता की बुद्धि से अपने को श्रेष्ठ मानकर पर में हीनता की बुद्धि हो उसे विचिकित्सा कहते हैं; वह जिसके न हो सो निर्विचिकित्सा अंगयुक्त सम्यग्दृष्टि होता है। उसके चिन्ह ऐसे हैं कि -यदि कोई पुरुष पाप के उदय से दुःखी हो, असाता के उदय से ग्लानियुक्त शरीर हो तो उसमें ग्लानिबुद्धि नहीं करता। ऐसी बुद्धि नहीं करता किमैं सम्पदावान हूँ, सुन्दर शरीरवान हूँ, यह दीन रङ्क मेरी बराबरी नहीं कर सकता। उलटा ऐसा विचार करता है कि- प्राणियों के कर्मोदय से अनेक विचित्र अवस्थाएँ होती हैं। जब मेरे ऐसे कर्मका उदय आवे तब मैं भी ऐसा ही हो जाऊँ। --ऐसे विचार से निर्विचिकित्सा अङ्ग होता है ।।३।।
अतत्त्वमें तत्त्वपनेका श्रद्धान मूढदृष्टि है। ऐसी मूढदृष्टि जिसके न हो सो अमूढदृष्टि है। मिथ्यादृष्टियों द्वारा मिथ्या हेतु एवं मिथ्या दृष्टांत से साधित पदार्थ हैं वह सम्यग्दृष्टि को प्रीति उत्पन्न नहीं कराते हैं तथा लौकिक रूढ़ि अनेक प्रकार की है, वह निःसार है, निःसार पुरुषों द्वारा ही उसका आचरण होता है, जो अनिष्ट फल देनेवाली है तथा जो निष्फल है; जिसका बुरा फल है तथा उसका कुछ हेतु नहीं है, कुछ अर्थ नहीं है; जो कुछ लोक रूढ़ि चल पड़ती है उसे लोग अपना लेते हैं और फिर उसे छोड़ना कठिन हो जाता है -इत्यादि लोकरूढि है।
अदेव में देव बुद्धि, अधर्ममें धर्मबुद्धि , अगुरुमें गुरुबुद्धि इत्यादिक देवादि मूढ़ता है वह कल्याणकारी नहीं है। सदोष देव को देव मानना, तथा उनके निमित्त हिंसादि द्वारा अधर्म को धर्म मानना, तथा मिथ्या आचारवान, शल्यवान, परिग्रहवान, सम्यक्त्व व्रत रहित को गुरु मानना इत्यादि मूढ़दृष्टि के चिन्ह हैं। अब, देव-धर्म-गुरु कैसे होते हैं, उनका स्वरूप जानना चाहिये, सो कहते हैं :--
रागादि दोष और ज्ञानावरणादिक कर्म ही आवरण हैं; यह दोनों जिसके नहीं हैं वह देव है। उसके केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनन्तसुख, अनन्तवीर्य -ऐसे अनन्तचतुष्टय होते हैं। सामान्यरूप से तो देव एक ही है और विशेषरूप से अरहंत, सिद्ध ऐसे दो भेद हैं; तथा इनके नामभेदके भेदसे भेद करें तो हजारों नाम हैं। तथा गुण भेद किये जायें तो अनन्त गुण हैं। परम औदारिक देह में विद्यमान घातिया कर्म रहित अनन्त चतुष्टय सहित धर्म का उपदेश करने वाले ऐसे तो अरिहंत देव हैं तथा
Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com