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दर्शनपाहुड]
सम्यग्दर्शन के आठ अङ्ग कहे हैं। उन्हें लक्षण भी कहते हैं और गुण भी। उनके नाम हैं----निःशंकित, निःकांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वासतलय और प्रभावना।
वहाँ शंका नाम संशय का भी है। और भय का भी। वहाँ धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, कालाणुद्रव्य, परमाणु इत्यादि तो सूक्ष्म वस्तु हैं, तथा द्वीप, समुद्र , मेरूपर्वत आदि दूरवर्ती पदार्थ हैं, तथा तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदि अंतरित पदार्थ हैं; वे सर्वज्ञ के आगम में जैसे कहे हैं वैसे है या नहीं हैं ? अथवा सर्वज्ञदेव ने वस्तुका स्वरूप अनेकान्तात्मक कहा है सो सत्य है या असत्य ?-ऐसे सन्देह को शंका कहते हैं। तथा यह जो शंका होती है सो मिध्यात्वकर्मके उदय से ( उदयमें युक्त होने से) होती है; परमें आत्मबुद्धि होना उसका कार्य है। जो परमें आत्मबुद्धि है सो पर्याय बुद्धि है, पर्याय बुद्धि भय भी उत्पन्न करती है, शंका भय को भी कहते हैं, उसके सात भेद हैं :- इस लोक का भय, परलोकका भय, मृत्युका भय, अरक्षाका भय, अगुप्तिका भय, वेदना का भय। अकस्मात् का भय। जिनके यह भय हों उसे मिथ्यात्वकर्म का उदय समझना चाहिये; सम्यग्दृष्टि होने पर यह नहीं होते।
प्रश्न :--भय प्रकृतिका उदय तो आठवें गुणस्थान तक है; उसके निमित्त से सम्यग्दृष्टि को भय होता ही है, फिर भय का अभाव कैसा ?----समाधान :--कि यद्यपि सम्यग्दृष्टिके चारित्रमोह के भेदरूप भय प्रकृति के उदय से भय होता है तथापि उसे निर्भय ही कहते हैं, क्योंकि उसके कर्मके उदयका स्वामित्व नहीं है और परद्रव्यके कारण अपने द्र नाश नहीं मानता। पर्याय का स्वभाव विनाशीक मानता है इसलिये भय होने पर भी उसे निर्भय ही कहते हैं। भय होने पर उसका उपचार भागना इत्यादि करता है; वहाँ वर्तमान की पीड़ा सहन न होने से वह इलाज (-उपचार) करता है वह निर्बलता का दोष है। इसप्रकार सम्यग्दृष्टि संदेह तथा भय रहित होने से उसके निःशंकित अङ्ग होता है ।।१।।
कांक्षा अर्थात् भोगों की इच्छा- अभिलाषा। वहाँ पूर्वकाल में किये भोगोंकी वांछा तथा उन भोगों की मुख्य क्रिया में वांछा कर्म और कर्मके फल की वांछा तथा मिथ्यादृष्टियों के भोगों की प्राप्ति देखकर उन्हें अपने मन में भला जानना अथवा जो इन्द्रियोंको न रुचें ऐसे विषयों में उद्वेग होना- यह भोगाभिलाष के चिन्ह हैं। यह भोगाभिलाष मिथ्यात्वकर्म के उदय से होता है, और जिसके यह न हो वह नि:काक्षित अङ्गयुक्त सम्यग्दृष्टि होता है। वह सम्यग्दृष्टि यद्यपि शुभक्रिया - व्रतादिक आचरण
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