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३०२]
। अष्टपाहुड
परमप्पय झायंतो जोइ मुच्चेइ मलदलोहेण। णादियदि णवं कम्मं णिद्दिष्टुं जिणवरिंदेहिं।। ४८।।
परमात्मानं ध्यायन योगी मुच्यते मलदलोभेन। नाद्रियते नवं कर्म निर्दिष्टं जिनवरेन्द्रैः।। ४८ ।।
अर्थ:--जो योगी ध्यानी परमात्मा का ध्यान करता हुआ रहता है वह मल देने वाले लोभ कषाय से छूटता है, उसके लोभ मल नहीं लगता है इसी से नवीन कर्म का आस्रव उसके नहीं होता है, यह जिनवरेन्द्र तीर्थंकर सर्वज्ञदेव ने कहा है।
भावार्थ:--मुनि भी हो और परजन्मसंबंधी प्राप्तिका लोभ होकर निदान करे उसके परमात्मा का ध्यान नहीं होता है, इसलिये जो परमात्मा का ध्यान करे उसके इसलोक परलोक संबंधी कुछ भी लोभ नहीं होता, इसलिये उसके नवीन कर्मका आस्रव नहीं होता ऐसा जिनदेवने कहा है। यह लोभ कषाय ऐसा ही की दसवें गुणस्थान तक पहुँच जाने पर भी अव्यक्त होकर आत्मा को मल लगाता है, इसलिये इसको काटना ही युक्त है, अथवा जब तक मोक्षकी चाहरूप लोभ रहता है तब तक मोक्ष नहीं होता है, इसलिये लोभ का अत्यंत निषेध है।। ४८।।
आगे कहते है कि जो ऐसा निर्लोभी बनकर दृढ़ सम्यक्त्व -ज्ञान – चारित्रवान होकर परमात्माका ध्यान करता है वह परम पदको पाता है:---
होऊण दिढचरित्तो दिढसम्मत्तेण भावियमईओ। झायंतो अप्पाणं परमपयं पावए जोई।। ४९ ।।
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परमात्मने ध्यातां श्रमण मळजनक लोभ थकी छूटे, नूतन करम नहि आस्रवे-जिनदेवथी निर्दिष्ट छ। ४८ ।
परिणत सुदृढ-सम्यक्त्वरूप, लही सुदृढ-चारित्रने, निज आत्मने ध्यातां थकां योगी परम पदने लहे। ४९ ।
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