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भावपाहुड]
[२३९
ध्याय पंच अपि गुरुन् मंगलचतुः शरणलोकपरिकरितान्। नरसुरखेचरमहितान् आराधनानायकान् वीरान्।।१२४ ।।
अर्थ:---हे मुने! तू पंच गुरु अर्थात् पंचपरमेष्ठी का ध्यान कर। यहाँ ‘अपि' शब्द शुद्धात्म सवरूपके ध्यानको सूचित करता है। पंच परमेष्ठी कैसे हैं ? मंगल अर्थात् पाप के नाशक अथवा सुखदायक और चउशरण अर्थात् चार शरण तथा 'लोक' अर्थात् लोक के प्राणियों से अरहंत, सिद्ध, साधु, केवलीप्रणीत धर्म, ये परिकरित अर्थात् परिवारित हैं---- युक्त (-सहित) हैं। नर - सुर - विद्याधर सहित हैं, पूज्य हैं, इसलिये वें ‘लोकोत्तम' कहे जाते है, आराधनाके नायक हैं , वीर हैं, कर्मों के जीतने को सुभट हैं और विशिष्ट लक्ष्मी को प्राप्त हैं तथा देते हैं। इसप्रकार पंच परम गुरुका ध्यान कर।
भावार्थ:---यहाँ पंच परमेष्ठीका ध्यान करनेके लिये कहा। उस ध्यानमें विघ्नको दूर करने वाले 'चार मंगल' कहे वे यही हैं, चार शरण' और 'लोकोत्तम' कहे हैं वे भी इन्ही को कहे हैं। इनके सिवाय प्राणीको अन्य शरण या रक्षा करनेवाला कोई भी नहीं है और लोक में उत्तम भी ये ही हैं। आराधना दर्शन - ज्ञान – चारित्र - तप ये चार हैं, इनके नायक | स्वामी | भी ये ही हैं, कोंको जीतनेवाले भी ये ही हैं । इसलिये ध्यान करने इनका ध्यान श्रेष्ठ है। शुद्धस्वरूपकी प्राप्ति इनही के ध्यान से होती है, इसलिये यह उपदेश है।। १२४ ।।
आगे ध्यान है वह, 'ज्ञानका एकाग्र होना' है, इसलिये ज्ञानके अनुभव का उपदेश करते हैं:---
णाणमय विमलसीयलसलिलं पाऊण भविय भावेण। वाहिजरमरणवेयणडाहविमुक्का सिवा होंति।।१२५।।
ज्ञानमयविमल शीतल सलिलं प्राप्य भव्याः भावेन। व्याधिजरामरणवेदनादाहविमुक्ताः शिवाः भवन्ति ।। १२५ ।।
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ज्ञानात्म निर्मळ नीर शीतळ प्राप्त करीने, भावथी, भवि थाय छे जर-मरण-व्याधिदाहवर्जित, शिवमयी। १२५
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