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[ अष्टपाहुड जिनने परमार्थ सुखका आस्वाद लिया उनको इन्द्रियसुख दुःख ही है ऐसा स्पष्ट भासित हुआ है, अतः परमार्थ सुखका उपाय धर्म-शुक्लध्यान है उसको करके वे संसारका अभाव करते हैं, इसलिये भावलिंगी होकर ध्यानका अभ्यास करना चाहिये।। १२२ ।।
आगे इस ही अर्थका दृष्टांत द्वारा दृढ़ करते हैं:---
जह दीवो गब्भहरे मारुयबाहाविवज्जिओ जलइ। तह रायाणिलरहिओ झाणपईयो वि पज्जलइ।।१२३।।
यथा दीपः गर्भगृहे मारुतबाधाविवर्जितः ज्वलति। तथा रागानिलरहितः ध्यानप्रदीपः अपि प्रज्वलति।।१२३ ।।
अर्थ:--जैसे दीपक गर्भगह अर्थात जहाँ पवनका संचार नहीं है ऐसे मध्यके घरमें पवन की बाधा रहित निश्चल होकर जलता है [ प्रकाश करता है], वैसे ही अंतरंग मनमें रागरूपी पवनसे रहित ध्यानरूपी दीपक भी जलता है, एकाग्र होकर ठहरता है, आत्मरूपको प्रकाशित करता है।
भावार्थ:--पहिले कहा था कि जो इन्द्रियसुखसे व्याकुल हैं उनके शुभध्यान नहीं होता है, उसका यह दीपकका दृष्टांत है-- जहाँ इन्द्रियोंके सुख में जो राग वह ही हुआ पवन वह विद्यमान है, उनके ध्यानरूपी दीपक कैसे निर्बाध उद्योत करे ? अर्थात् न करे, और जिनके यह रागरूपी पवन बाधा न करे उनके ध्यानरूपी दीपक निश्चल ठहरता है।। १२३।।
आगे कहते हैं कि---ध्यानमें जो परमार्थ ध्येय शुद्ध आत्माका स्वरूप है उस स्वरूपके आराधनमें नायक (प्रधान) पंच परमेष्ठी हैं, उनका ध्यान करनेका उपदेश करते हैं:---
झायहि पंच वि गुरवे मंगलचउसरणलोयपरियरिए। णरसुरखेयरमहिए आराहणणायगे वीरे।। १२४ ।।
ज्यम गर्भगृहमां पवननी बाधा रहित दीपक जळे, ते रीत रागानिलविवर्जित ध्यानदीपक पण जळे। १२३ ।
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