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भावपाहुड]
[ २१९ भावार्थ:--मुनि छियालीस दोषरहित शुद्ध आहार करता है, बत्तीस अंतराय टालता है, चौदह मलदोषरहित करता है, सो जो मुनि होकर सदोष हार करे तो ज्ञात होता है कि इसके भाव भी शुद्ध नहीं है। उसको उपदेश है कि---हे मुनि! तुने दोष-सहित अशुद्ध आहार किया, इसलिये तिर्यंचगति में पहिले भ्रमण किया और कष्ट सहा, इसलिये भाव शुद्ध करके शुद्ध आहार कर जिससे फिर भ्रमण न करे। छियालीस दोषोंमें सोलह तो उद्गम दोष हैं, वे आहारके बनने के हैं, ये श्रावक आश्रित हैं। सोलह उत्पादन दोष हैं, ये मुनिके आश्रित हैं। दस दोष एषणाके हैं, ये आहारके आश्रित है। चार प्रमाणादिक हैं। इनके नाम तथा स्वरूप 'मूलाचार', 'आचारसार' ग्रंथसे जानिये।। १०१।।
आगे फिर कहते हैं:--.
सच्चित्तभत्तपाणं गिद्धी दप्पेणऽधी पभुत्तूण। पत्तो सि तिव्वदुक्खं अणाइकालेण तं चिंत।।१०२।।
सचित्तभक्तपानं गृध्या दर्पण अधीः प्रभुज्य। प्राप्तोऽसि तीव्रदुःखं अनादिकालेन त्वं चिन्तय।। १०२।।
अर्थ:--हे जीव! तू दुर्बुद्धि (अज्ञानी) होकर अतिचार सहित तथा अतिगर्व ( उद्धतपने) से सचित्त भोजन तथा पान, जीवसहित आहार - पानी लेकर अनादिकाल से तीव्र दुःखको पाया, उसका चिन्तवन कर - विचार कर।
अनादिकाल से जाना करत अहासीसारम
भावार्थ:--मुनिको उपदेश करते हैं कि---अनादिकालसे जब तक अज्ञानी रहा जीवका स्वरूप नहीं जाना, तब तक सचित (जीवसहित) आहार - पानी करते हुए संसारमें तीव्र नरकादिकके दुःख को पाया। अब मुनि होकर भावशुद्ध करके सचित्त आहार - पानी मत करे, नहीं तो फिर पूर्ववत् दुःख भोगेगा।। १०२ ।।
आगे फिर कहते हैं:--
तुं विचार रे! -तें दुःख तीव्र लयां अनादि काळथी, करी अशन-पान सचित्तनां अज्ञान-गृद्धि-दर्पथी। १०२।
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