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। अष्टपाहुड
आगे भावही के फलको विशेषरूप से कहते हैं:---
पावंति भावसवणा कल्लाण परंपराइं सोक्खाइं। दुक्खाई दव्वसवणा णरतिरियकुदेव जोणीए।।१००।।
पाप्नुवंति भावश्रमणाः कल्याणपरंपरा: सौख्यानि। दुःखानि द्रव्यश्रमणाः नरतिर्यक्कुदेवयोनौ।। १०० ।।
अर्थ:--जो भावश्रमण हैं, वे जिनमें कल्याणकी परम्परा है ऐसे सुखोंको पाते हैं और जो द्रव्यश्रमण हैं वे तिर्यंच मनुष्य कुदेव योनिमें दुःखोंको पाते हैं।
भावार्थ:--भावमुनि सम्यग्दर्शन सहित हैं वे तो सोलहकारण भावना भाकर गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान, निर्वाण----पंचकल्याणक सहित तीर्थंकर पद पाकर मोक्ष पाते हैं और जो सम्यग्दर्शन रहित द्रव्यमनि हैं वे तिर्यंच, मनुष्य, कुदेव योनि पाते हैं। यह भावके विशेष से फलका विशेष है।। १०० ।।
आगे कहते हैं कि अशुद्ध भावसे अशुद्ध ही आहार किया, इसलिये दुर्गति ही पाई:---
छायालदोसदूसियमसणं गसिउं असुद्ध भावेण। पत्तो सि महावसणं तिरियगईए अणप्पवसो।।१०१।।
षट्चत्वारिंशदोषदूषितमशनं ग्रसितं अशुद्धभावेन। प्राप्तः असि महाव्यसनं तिर्यग्गतौ अनात्मवशः।। १०१।।
अर्थ:--हे मुने! तुने अशुद्ध भावेस छियालीस दोषोंसे दूषित अशुद्ध अशन (आहार) ग्रस्या (खाया) इस कारण से तिर्यंचगति में पराधीन होकर महान (बड़े) व्यसन (कष्ट) को प्राप्त किया।
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रे! भावमुनि कल्याणकोनी श्रेणियुत सौख्यो लहे; ने द्रव्यमुनि तिर्यंच-मनुज-कुदेवमां दुःखो सहे। १०० ।
अविशुद्ध भावे दोष छेताळीस सह ग्रही अशनने, तिर्यंचगति मध्ये तुं पाम्यो दुःख बहु परवशपणे। १०१ ।
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