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भावपाहुड]
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के बीच में रहा. कैसा रहा? माता के दाँतोंसे चबाया हआ और दाँतोंके लगा हुआ (रुका हुआ) झूठा भोजन के खाने के पीछे जो उदर में गया उसके रस रूपी आहार से रहा।। ४०।।
आगे कहते हैं कि गर्भ से निकल कर इसप्रकार बालकपन भोगा:--
सिसुकाले य अयाणे असूईमज्झम्मि लोलिओ सि तुम। असुई असिया बहुसो मुणिवर बालत्तपत्तेण।। ४१ ।।
शिशुकाले च अज्ञाने अशुचिमध्ये लोलितोऽसि त्वम्। अशुचिः अशिता बहुशः मुनिवर! बालत्वप्राप्तेन।। ४१ ।।
अर्थ:--हे मुनिवर! तू बचपन के समयमें अज्ञान अवस्थामें अशुचि [ अपवित्र ] स्थानोंमें अशुचिके बीच लेटा और बहुत बार अशुचि वस्तु ही खाई , बचपन को पाकर इसप्रकार चेष्ठायें की।
भावार्थ:--यहाँ ‘मुनिवर' इसप्रकार सम्बोधन है वह पहलेके समान जानना; बाह्य आचरण सहित मुनि हो उसी को यहाँ प्रधानरूप से उपदेश है कि बाह्य आचरण किया वह तो बड़ा कार्य किया, परन्तु भावोंके बिना वह निष्फल है इसलिये भावके सन्मुख रहना, भावोंके बिना ही यह अपवित्र स्थान मिले हैं।। ४१।।
आगे कहते है कि यह देह इस प्रकार है उसका विचार करो:--
मंसट्ठिसुक्कसोणियपित्तंतसवत्तकुणिमदुग्गंधं । खरिसवसापूय 'रिवब्भिस भरियं चिंतेहि देहउडं ।। ४२।।
मांसास्थिशुक्र श्रोणितपित्तांत्रस्रयवत्कुणिमदुर्गन्धम्। खरिसवसापूयकिल्विषभरितं चिन्तय देहकुटम्।। ४२।।
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-------------------------------------------------------- १ पाठान्तरः - 'खिन्सिस'
तुं अशुचिमां लोट्यो घणुं शिशुकाळमां अणसमजमां, मुनिवर! अशुचि आरोगी छे बहु वार तें बालत्वमां। ४१ ।
पल-पित्त-शोणित-आं थी दुर्गध शब सम ज्यां स्रवे, चिंतव तुं पीप-वसादि-अशुचि भरेल कायाकुंभने। ४२।
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