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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates १७६] [ अष्टपाहुड भावार्थ:--यह जीव पराधीन होकर सब दुःख सहता है। यदि ज्ञानभावना करे और दुःख आने पर उससे चलायमान न हो, इस तरह स्ववश होकर सहे तो कर्मका नाश कर मुक्त हो जावे, इसप्रकार जानना चाहिये।। ३८।। आगे कहते हैं कि अपवित्र गर्भवास में भी रहा:-- पित्तंतमुत्तफेफसकालिज्जयरुहिरखरिसकिमिजाले। उयरे वसिओ सि चिरं णवदसमासेहिं पत्तेहिं।। ३९ ।। पित्तांत्रमूत्रफेफसयकृद्रुधिरखरिसकृमिजाले। उदरे उषितोऽसि चिरं नवदशमासैः प्राप्तेः।। ३९ ।।। अर्थ:--हे मुने! तूने इसप्रकार के मलिन अपवित्र उदर में नव मास तथा दस मास प्राप्त कर रहा। कैसा है उदर ? जिसमें पित्त और आंतोंसे वेष्टित, मूत्रका स्रवण, फेफस अर्थात् जो रुधिर बिना मेद फूल जावे, कालिज्ज अर्थात् कलेजा, खून, खरिस अर्थात् अपक्व मलसे मिला हुआ रुधिर श्लेष्म और कृमिजाल अर्थात् लट आदि जीवोंके समूह ये सब पाये जाते हैं--इसप्रकार स्त्री के उदर प्रकार स्त्री क उदर म बहुत बार रहा।। ३९।। फिर इसी को कहते है:--- दियसंगट्ठियमसणं आहारिय मायभुत्त मण्णांते। छदिखरिसाण मज्झे जढरे वसिओ सि जणणीए।। ४०।। द्विजसंगस्थितमशनं आहृत्य मातृभुक्तमन्नान्ते। छर्दिखरिसयोर्मध्ये जठरे उषितोऽसि जनन्याः।। ४०।। अर्थ:--हे जीव! तू जननी ( माता) के उदर (गर्भ) में रहा, वहाँ माताके और पिताके भोगके अन्त, छर्दि (वमन) का अन्न, खरिस (रुधिरसे मिला हुआ अपक्व मल मळ-मूत्र-शोणित-पित्त-करम, बरोळ, यकृत, आंत्र ज्यां, त्यां मास नव-दश तुं वस्यो बहु वार जननी-उदरमा ३९ । जननी तणुं चावेल ने खाधेल अठं खाईने, तुं जननी केरा जठरमां वमनादिमध्य वस्यो अरे! ४०। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
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