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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates १३८] । अष्टपाहुड विवरीयमूढभावा पणट्ठकम्मट्ठ णट्ठमिच्छत्ता। सम्मत्तगुणविसुद्धा पव्वज्जा एरिसा भणिया।। ५३।। विपरीतमूढभावा प्रणष्टकर्माष्टा नष्टमिथ्यात्वा। सम्यक्त्वगुणविशुद्धा प्रव्रज्या ईदृशी भणिता।। ५३।। अर्थ:--कैसी है प्रवज्या ?----कि जिसके मूढ़भाव , अज्ञानभाव विपरीत हुआ है अर्थात् दूर हुआ है। अन्यमती आत्मा का स्वरूप सर्वथा एकांतसे अनेकप्रकार भिन्न-भिन्न कहकर वाद करते हैं, उनके आत्मा के स्वरूप में मूढ़भाव है। जैन मुनियोंके अनेकांतसे सिद्ध किया हुआ यथार्थ ज्ञान है इसलिये मूढ़भाव नहीं है। जिसमें आठ कर्म और मिथ्यात्वादि प्रणष्ट हो गये हैं, जैनदीक्षामें अतत्त्वार्थश्रद्धानरूप मिथ्यात्वका अभाव है, इसलिये सम्यक्त्व नामक गुण द्वारा विशुद्ध हैं, निर्मल हैं, सम्यक्त्वसहित दीक्षा में दोष नहीं रहता; इसप्रकार प्रवज्या कहीं है।। ५३।। आगे फिर कहते हैं:-- जिणमग्गे पव्वज्जा छहसंहणणेसु भणिय णिग्गंथा। भावंति भव्वपुरिसा कम्मक्खयकारणे भणिया।। ५४।। जिनमार्गे प्रव्रज्या षट्संहननेषु भणिता निग्रंथा। भावयंति भव्यपुरुषाः कर्मक्षयकारणे भणिता।। ५४।। अर्थ:--प्रवज्या जिनमार्ग में छह संहननवाले जीवके होना कहा है, निर्ग्रन्थ स्वरूप है, सब परिग्रहसे रहित यथाजातस्वरूप है। इसकी भव्यपुरुष ही भावना करते हैं। इसप्रकारकी प्रवज्या कर्मके क्षयका कारण कही है। भावार्थ:--वज्रऋषभनाराच आदि छह शरीरके संहनन कहें हैं, उनमें सब में ही दीक्षा होना कहा है, जो भव्य पुरुष हैं वे कर्मक्षयका कारण जानकर इसको अंगीकार करो। इसप्रकार नहीं है कि दृढ़ संहनन वज्रऋषभ आदि हैं उनमें ही दीक्षा हो और असंसृपाटिक संहननमें न हो, इसप्रकार निग्रंथरूप दीक्षा तो असंप्राप्तासृपाटिका ज्यां मूढता-मिथ्यात्व नहि, ज्यां कर्म अष्ट विनष्ट छे, सम्यक्त्वगुणथी शुद्ध छे, -दीक्षा कही आवी जिने। ५३। निग्रंथ दीक्षा छे कही षट् संहननमां जिनवरे; भवि पुरुष भावे तेहने; ते कर्मक्षयनो हेतु छ। ५४। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
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