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बोधपाहुड] है। परकृतनिलयनिवास अर्थात् जिसमें दूसरे का बनाया निलय जो वास्तिका आदि उसमें निवास होता है, जिसमें अपने को कृत, कारित, अनुमोदना, मन, वचन, काय द्वारा दोष न लगा हो ऐसी दूसरे की बनाई हुई वास्तिका आदि में रहना होता है--ऐसी प्रवज्या कही है।
भावार्थ:--अन्यमती कई लोग बाह्य में वस्त्रादिक रखते हैं, कई अयुध रखते हैं, कई सुखके लिये आसन चलाचल रखते हैं, कई उपाश्रय आदि रहने का निवास बना कर उसमें रहते हैं और अपने को दीक्षा सहित मानते हैं, उनके भेष मात्र है, जैन दीक्षा तो जैसी कही वैसी ही है।। ५१।।
आगे फिर कहते हैं:--
उवसमखमदमजुत्ता सरीरसंकार वज्जिया रुक्खा। मयरायदोसरहिया पव्वज्जा एरिसा भणिया।। ५२।।
उपशमक्षमदमयुक्ता शरीर संस्कार वर्जिता रूक्षा। मदरागदोषरहिता प्रव्रज्या ईदृशी भणिता।। ५२।।
अर्थ:--कैसी है प्रवज्या ? उपशमक्षमदमयुक्ता अर्थात् उपशम तो मोहकर्मके उदयका अभावरूप शांतपरिणाम और क्षमा अर्थात् क्रोधका अभावरूप उत्तमक्षमा तथा दम अर्थात् इन्द्रियोंको विषयों में नहीं प्रवर्ताना---इन भावोंसे युक्त है, शरीर संस्कार वर्जिता अर्थात् स्नानादि द्वारा शरीर को सजाना इससे रहित है, जिसमें रूक्ष अर्थात् तेल आदिका मर्दन शरीरके नहीं है। मद, राग, द्वेष रहित है, इसप्रकार प्रवज्या कही है।
भावार्थ:--अन्यमतके भेषी क्रोधादिरूप परिणमते हैं, शरीरको सजाकर सुन्दर रखते हैं, इन्द्रियोंके विषयोंका सेवन करते हैं और अपने को दीक्षासहित मानते हैं, वे तो गृहस्थके समान हैं, अतीत (यति) कहलाकर उलटे मिथ्यात्वको दृढ़ करते हैं; जैन दीक्षा इसप्रकार है वही सत्यार्थ है, इसको अंगीकार करते हैं वे ही सच्चे अतीत ( यति) हैं।। ५२ ।।
आगे फिर कहते हैं:--
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उपशम-क्षमा-दमयुक्त, तनसंस्कारवर्जित रूक्ष छे, मद-राग-द्वेषविहीन छे, -दीक्षा कही आवी जिने। ५२।
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