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। अष्टपाहुड
आगे फिर कहते हैं:--
चेइय बंधं मोक्खं दुक्खं सुक्खं च अप्पयं तस्स। चेइहरं जिणमग्गे छक्कार्याहयंकरं भणियं ।।९।।
चैत्यं बंधं मोक्षं दु:खं सुखं च आत्मकं तस्य। चैत्यगृहं जिनमार्गे षड्कायहितंकरं भणितम्।।९।।
अर्थ:--जिसके बंध और मोक्ष , सुख और दुःख हो उस आत्माको चैत्य कहते हैं-अर्थात् ये चिन्ह जिसके स्वरूपमें हों उसे 'चैत्य' कहते हैं, क्योंकि जो चैतन्यस्वरूप हो उसी के बंध, मोक्ष, सुख, दुःख संभव है। इसप्रकार चैत्य का जो गृह हो वह 'चैत्यगृह' है। जिनमार्ग में इसप्रकार चैत्यगृह छहकायका हित करनेवाला होता है। वह इसप्रकार का 'मुनि' है। पाँच स्थावर और त्रसमें विकलत्रय और असैनी पँचेन्द्रिय तक केवल रक्षा ही करने योग्य हैं, इसलिये उनकी रक्षा करने का उपदेश करता है, तथा आप उनका घात नहीं करता है यही उनका हित है; और सैनी पँचेन्द्रिय जीव हैं उनकी रक्षा भी करता है, रक्षाका उपदेश भी करता है तथा उनको संसार से निवृत्तिरूप मोक्ष प्राप्त करने का उपदेश करते हैं। इसप्रकार मुनिराज को 'चैत्यगृह' कहते हैं।
भावार्थ:--लौकिक जन चैत्यगृह का स्वरूप अन्यथा अनेक प्रकार मानते हैं उनको सावधान किया है कि--जिनसूत्र में छहकायका हित करने वाला ज्ञानमयी संयमी मुनि है वह 'चैत्यगृह' है; अन्यको चैत्यगृह कहना, मानना व्यवहार है। इसप्रकार चैत्यगृहका स्वरूप कहा।।
[३] आगे जिनप्रतिमा का निरूपण करते हैं:--
चेतन-स्वयं, सुख-दुःख-बंधन-मोक्ष जेने अल्प छे, षट्कायहितकर तेह भाख्यु चैत्यगृह जिनशासने।९।
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