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[अष्टपाहुड भावार्थ:--इन्द्रियगोचर सजीव अजीव द्रव्य हैं, ये इन्द्रियोंके ग्रहण में आते हैं, इनमें यह प्राणी किसीको इष्ट मानकर राग करता है, किसी को अनिष्ट मानकर द्वेष करता है, इसप्रकार राग-द्वेष मुनि नहीं करते हैं उनके संयमचरण चारित्र होता है।।२९ ।।
र राग करता है, किसी को अनिष्ट
आगे पाँच व्रतोंका स्वरूप कहते हैं:--
हिंसाविरई अहिंसा असच्चविरई अदत्तविरई य। तुरियं अबभविरई पंचम संगम्मि विरई य।।३०।।
हिंसाविरतिरहिंसा असत्यविरतिः अदत्तविरतिश्व। तुर्यं अब्रह्मविरतिः पंचम संगे विरतिः च।।३०।।
अर्थ:--प्रथम तो हिंसा से विरति अहिंसा है, दूसरा असत्यविरति है, तीसरा अदत्तविरति है, चौथा अबह्मविरति है और पाँचवाँ परिग्रहविरति है।
भावार्थ:--इन पाँच पापोंका सर्वथा त्याग जिनमें होता है वे पाँच महाव्रत कहलाते हैं।।
३०।।
आगे इनको महाव्रत क्यों कहते हैं वह बताते हैं:--
साहंति जं महल्ला आयरियं जं महल्लपुव्वेहिं। जं च महल्लाणि तदो 'महव्वया इत्तहे याइं।।३१।।
साधयंति यन्महांतः आचरितं यत् महत्पूर्वैः। यच्च महन्ति ततः महाव्रतानि एतस्माद्धेतोः तानि।।३१।।
१ पाठान्तरः-- 'महव्वया इत्तहे याइं के स्थान पर 'महव्यायाई तहेयाई'
हिंसाविराम , असत्य तेम अत्तथी विरमण अने अब्रह्मविरमण, संगविरमण – छे महाव्रत पांच ओ। ३०।
मोटा पुरुष साधे, पूरव मोटा जनोओ आचर्या, स्वयमेव वळी मोटां ज छे, तेथी महाव्रत ते ठाँ। ३१ ।
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