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तपस्वी-जीवन के साथ सूर्य के सामने दृष्टि रखकर खड़ा-खड़ा आतापना करता है और उबाले हए मुट्ठिभर उडद तथा चुल्लू भर गरम पानी से पारणा करता है, उस तपस्वी को थोड़ी बहुत तेजोलेश्या उत्पन्न होती है ।
कुछ समय के बाद भगवान् ने फिर सिद्धार्थपुर की तरफ विहार किया । जब वे तिलवाली जगह पहुँचे तो गोशालक बोला-'देखिये भगवन् ! वह तिलस्तम्ब नहीं निपजा जिसके निपजने की आपने भविष्यवाणी की थी ।' अन्य स्थान पर लगे हुए उस तिलस्तम्ब को बतलाते हुए भगवान् ने कहा-'देख, यही है वह तिलस्तम्ब जिसे तूने उखाड़ फेंका था ।'
गोशालक को विश्वास न हुआ । वह तिलस्तम्ब के पास गया और फली तोड़कर उसे फोड़ कर देखा तो उसमें से सात ही तिल निकले । इस घटना से गोशालक नियतिवाद के सिद्धान्त की तरफ आकृष्ट होकर बोला---'इसी प्रकार सभी जीव मर कर फिर अपनी ही योनि में उत्पन्न होते हैं।'
अब तक की अनेक घटनाओं से गोशालक नियतिवाद का पक्का समर्थक बन चुका था, अतः भगवान् से जुदा होकर वह श्रावस्ती गया और आजीवक मत की उपासिका कुम्हारिन हालाहला की भाण्डशाला में रहकर तेजोलेश्या की साधना करने लगा ।।
__ भगवान् की कही हुई विधि के अनुसार छ: मास तक तप और आतापना करके गोशालक ने तेजःशक्ति प्राप्त कर ली और परीक्षा के तौर पर उसका पहला प्रयोग कुँए पर पानी भरती हुई एक दासी पर किया ।
तेजोलेश्या प्राप्त करने के उपरान्त गोशालक ने छ: दिशाचरों से निमित्तशास्त्र का कुछ अंश पढ़ा जिससे वह सुख, दुःख, लाभ, हानि, जीवित और मरण इन छ: बातों में सिद्धवचन नैमित्तिक बन गया ।
तेजोलेश्या और निमित्तज्ञान जैसी असाधारण शक्तियों ने गोशालक का महत्त्व बहुत बढ़ा दिया । प्रतिदिन उसके भक्त और अनुयायियों की संख्या बढ़ने लगी । साधारण भिक्षु गोशालक अब एक आचार्य की कोटि में पहुँच गया और आजीवक संप्रदाय का तीर्थंकर बनकर विचरने लगा ।
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