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________________ ३३ तपस्वी-जीवन लोहार्गला से भगवान् ने पुरिमताल की ओर विहार किया और नगर के बाहर शकटमुख उद्यान में कुछ समय तक ध्यान किया । यहाँ आपका 'वग्गुर श्रावक'ने सत्कार किया । पुरिमताल से उन्नाग, गोभूमि होते हुए आप राजगृह पधारे और आठवाँ वर्षावास राजगृह में किया । इस वर्षावास में भी भगवान् ने चातुर्मासिक तप और विविध योगक्रियाओं की साधना की । चातुर्मास्य के समाप्त होने पर भगवान् ने राजगृह से विहार किया और बाहर जाकर तप का पारणा किया । ९. नवाँ वर्ष (वि० पू० ५०४-५०३) भगवान् ने सोचा--'अभी मुझे बहुत कर्म खपाने बाकी हैं इस लिए अनार्य देश में विहार कर सहायकों द्वारा विशेष निर्जरा कर दूं।' यह विचार कर आपने राढ के वज्रभूमि और शुद्धभूमि जैसे अनार्य प्रदेशों में परिभ्रमण आरम्भ किया । अनार्य देश में विचरने का परिणाम भगवान् अच्छी तरह जानते थे । वास्तव में उसे भोगने के लिए ही आपने यह मार्ग ग्रहण किया था । अनार्यों की दृष्टि में मानो महावीर उनके शिकार की वस्तु थे । जहाँ भी वे इन्हें देखते चारों ओर से घेर लेते, इन पर शिकारी कुत्ते छोड़ते, लाठीपत्थरों से पीटते और गालियों की बौछारें करते । इस प्रकार की अनेक कदर्थनायें अनार्यों द्वारा की जाती, पर मेरुधीर भगवान् महावीर पर उनका कुछ असर नहीं होता था । इन विडम्बनाकारी अनार्यों के ऊपर भगवान् लेशमात्र भी दुर्भाव नहीं लाते थे । वरं च अपने कर्मों की विशेष निर्जरा होती देख आप आन्तरिक प्रसन्नता का अनुभव करते थे । इस प्रकार आप अपने आचरणों से ही अनार्यों को क्षमाशीलता का पाठ पढ़ा रहे थे ।। इस अनार्यभूमि में भगवान को वर्षावास के लिए मकान तक नहीं मिला । फलस्वरूप यह नवाँ वर्षा-चातुर्मास्य आपने घूमते फिरते ही पूरा किया । छ: महीने तक अनार्यभूमि में भ्रमण कर वर्षाकाल के अनन्तर भगवान् आर्यभूमि में लौटे। श्रमण-३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008068
Book TitleShraman Bhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages465
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Philosophy
File Size8 MB
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