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श्रमण भगवान् महावीर की । चातुर्मास्य समाप्त होने पर आपने भद्दिया के बाहर चातुर्मासिक तप का पारणा किया और वहाँ से मगध भूमि की और विहार किया । ७. सातवाँ वर्ष (वि० पू० ५०६-५०५)
इस वर्ष शीत और उष्णकाल में भगवान् मगधभूमि में ही विचरे और वर्षाकाल निकट आने पर आप आलंभिया पधारे और सातवाँ वर्षावास आलंभियानगरी में किया ।
आलंभिया के वर्षावास में भी भगवान् ने चातुर्मासिक तप और विविध योगक्रियाओं की साधना की । चातुर्मास्य के अन्त में भगवान ने नगर के बाहर जाकर तप का पारणा किया और वहाँ से कुंडाक संनिवेश की ओर विहार किया । ८. आठवाँ वर्ष (वि० पू० ५०५-५०४)
कुछ समय तक भगवान् कुंडाक के वासुदेव के मंदिर में रहे और वहाँ से विहार कर मद्दना संनिवेश जाकर बलदेव के मंदिर में ध्यान किया । मद्दना से आप बहुसाल होते हुए लोहार्गला राजधानी पधारे । लोहार्गला के राजा जितशत्रु पर उन दिनों शत्रुओं की वक्रदृष्टि होने से राजपुरुष बहुत सतर्क रहते थे । कोई व्यक्ति अपना परिचय दिए बिना नगरी में प्रवेश नहीं कर सकता था । महावीर और गोशालक के वहाँ जाते ही पहरेदारोंने उन्हें रोक कर परिचय माँगा पर उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया । फलस्वरूप उनको गिरफ्तार कर राजा के पास ले गए ।
जिस समय महावीर और गोशालक राजसभा में लाये गये उस समय वहाँ अस्थिकग्रामवासी नैमित्तिक उत्पल भी उपस्थित था । भगवान् को देखते ही वह खड़ा हो गया और वन्दन करके बोला-'ये गुप्तचर नहीं, राजा सिद्धार्थ के पुत्र धर्मचक्रवर्ती तीर्थंकर हैं । चक्रवर्ती के लक्षणों को भी मात करने वाले इनके शारीरिक लक्षणों को तो देखिये ।' उत्पल द्वारा परिचय पाते ही जितशत्रु ने भगवान् और गोशालक को सत्कारपूर्वक मुक्त करके उनसे क्षमा प्रार्थना की ।
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