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तपस्वी-जीवन
२७
भिक्षा का समय होने पर गोशालक ने कहा—'चलिये भगवन्, भिक्षा का समय हो गया है।'
भगवान् ने कहा-'हमारा तो आज उपवास है ।'
उस समय पार्खापत्य मुनिचन्द्र स्थविर कुमारा में विचरते थे । आपका वास कुमारा के कूवणय कुम्हार की शाला में था । गोशालक जब कुमारा में गया तो उसे पापित्य मुनि मिले । उन्हें देखकर गोशालक ने पूछा- 'तुम कौन हो ?'
पार्थापत्य-'हम श्रमण निर्ग्रन्थ हैं ।'
गोशालक-'वाह रे निर्ग्रन्थ ! इतना इतना ग्रन्थ पास में रखते हुए भी तुम निर्ग्रन्थ ? निर्ग्रन्थ तो मेरे धर्माचार्य हैं जो तप और त्याग की साक्षात् प्रतिमूर्ति हैं ।'
पार्थापत्य-'जैसा तू है वैसे ही स्वयंगृहीत-लिंग तेरे धर्माचार्य भी होंगे।'
गोशालक-'तुम मेरे धर्माचार्य की निन्दा करते हो ? मेरे धर्माचार्य के तपस्तेज से तुम्हारा उपाश्रय जलकर भस्म हो जाएगा ।'
पापित्य-'हम तुम्हारे जैसों के शाप से जलनेवाले नहीं ।'
देर तक पार्खापत्य अनगारों के साथ तकरार करके गोशालक अपने स्थान पर आया और बोला-'भगवन् ! आज तो मेरी सारम्भ और सपरिग्रह श्रमणों से भेंट हुई ।'
भगवान् ने कहा-'वे पार्खापत्य अनगार हैं ।'
कुमारा से भगवान् गोशालक के साथ चोराक संनिवेश गये । वहाँ आरक्षकों ने उनसे परिचय माँगा और उत्तर न मिलने पर उन्हें गुप्तचर समझ कर पकड़ लिया और उन्हें काफी तंग किया परंतु दोनों में से किसी ने भी अपने बचाव के लिए सफाई नहीं दी । यह बात जब सोमा और जयन्ती नामक परिव्राजिकाओं ने सुनी तो उन्होंने घटनास्थल पर पहुँचकर आरक्षकों को महावीर
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