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तपस्वी - जीवन
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होकर जाता था और दूसरा उसके बाहर से होकर । भीतरवाला मार्ग सीधा होने पर भी भयंकर और उजड़ा हुआ था और बाहर का मार्ग लम्बा और टेढ़ा होने पर भी निर्भय । भगवान् ने भीतर के मार्ग से प्रयाण किया भगवान् अभी थोड़े ही कदम आगे बढ़े थे कि गोपालों ने उन्हें चेताया । वे बोले'देवार्य ! यह मार्ग निरापद नहीं है । इसमें एक अतिभयंकर दृष्टिविष सर्प रहता है जो अपनी विषज्वालाओं से मुसाफिरों को जलाकर भस्म कर देता है । यही कारण है कि यह मार्ग सीधा होते हुए भी उजड़ा हुआ है । आप इसे छोड़िये और बाहर के मार्ग से जाईये ।
महावीर ने हितचिन्तकों की चेतावनी पर कोई ध्यान नहीं दिया और उसी मार्ग से चलते हुए वे उस सर्प के बिल के समीप यक्ष के देवालय में जाकर ध्यानारूढ़ हो गये ।
सारा दिन आश्रमपद में घूम-फिरकर सर्प जब अपने स्थान पर आया तो उसकी नजर ध्यानस्थित भगवान् के ऊपर पड़ी। वह चकित होकर सोचने लगा कि बहुत समय से निर्जन इस वन में यह मनुष्य कैसे आ गया है ? उसने अपनी विषमय दृष्टि उन पर फेंकी । साधारण मनुष्य एक ही दृष्टिनिपात से जलकर खाक हो जाता पर महावीर पर इसका कोई असर नहीं हुआ । दूसरी तीसरी बार भी सर्पने अपनी विषपूर्ण दृष्टि श्री महावीर पर फेंकी फिर भी उसका कोई फल नहीं हुआ ।
अब सर्प के क्रोध का पार नहीं रहा । वह बड़े जोरों से उन पर झपटा और पाँव के अँगूठे में काय । मूच्छित देह उसके ऊपर न गिरे इस भय से एक ओर हट गया और स्थिरदृष्टि से उनके मुख के भाव देखने लगा । देर तक देखने के बाद उसने निश्चय किया कि इनकी शान्ति तथा स्थिरता में कोई चलन नहीं हुआ ।
सर्प ने दूसरी और तीसरी बार पूरी ताकत से आक्रमण किया पर परिणाम वही रहा जो पहले था । अब सर्प को निश्चय हो गया कि यह कोई साधारण मनुष्य नहीं है । वह स्थिरदृष्टि से भगवान् के मुख की तरफ देखने लगा । ज्यों ज्यों वह उनकी मुखमुद्रा को निहारता था त्यों त्यों प्रशमरसपूर्ण
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