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तपस्वी-जीवन
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हो गये । उसी समय वहाँ इन्द्र प्रकट होकर बोला- 'दुरात्मन् ! तुझे इतना भी मालूम नहीं कि ये राजा सिद्धार्थ के दीक्षित पुत्र वर्धमान हैं ।'
इसके पश्चात् भगवान् को वन्दन कर इन्द्र ने कहा--'भगवान् ! बारह वर्ष तक आपको विविध उपसर्ग होनेवाले हैं अतः आज्ञा दीजिये कि तबतक मैं आपकी सेवा में रहकर कष्ट निवारण किया करूँ ।'
इन्द्र की प्रार्थना का उत्तर देते हुए भगवान् महावीर ने कहा'देवेन्द्र ! यह कभी नहीं हुआ और न होगा । अर्हन्त देवेन्द्र या असुरेन्द्र किसी के सहारे केवलज्ञान नहीं पाते किन्तु अपने ही उद्यम, बल, वीर्य और पुरुषार्थ से केवलज्ञान पाकर निर्वाण को प्राप्त हुए हैं, होते हैं, और होंगे ।
दूसरे दिन भगवान् ने कर्मारग्राम से आगे विहार किया और कोल्लाग संनिवेश जाकर 'बहुल' ब्राह्मण के यहाँ क्षीरान से छ? तप का पारणा किया ।
कोल्लाग संनिवेश से भगवान् ने मोराक संनिवेश की तरफ प्रयाण किया और मोराक के बाहर दूइज्जन्त नामक पाषण्डस्थों के आश्रम में गये । वहाँ का कुलपति राजा सिद्धार्थ का मित्र था और महावीर का परिचित । अत: महावीर को देखते ही वह उठा और दोनों ने हाथ मिलाया । कुलपति के आग्रह से उस दिन भगवान् वहीं ठहरे । दूसरे दिन चलते समय कुलपति ने कहा-'कुमार ! यह आश्रम दूसरे का न समझिये । कुछ समय यहाँ ठहर कर इसे भी पवित्र कीजिये । कम से कम आगामी वर्षावास तो यहीं बिताने की स्वीकृति दीजिये ।'
कुलपति की प्रार्थना स्वीकार कर महावीर वहाँ से विहार कर गये और शीत तथा उष्णकाल आसपास के प्रदेश में व्यतीत कर वर्षा ऋतु के प्रारंभ में फिर उसी आश्रम में पहुँचे और कुलपति के बताये हुए एक झोंपड़े में रहने लगे।
यद्यपि कुलपति के आग्रहवश भगवान् ने वर्षाकाल आश्रम में बिताना स्वीकार कर लिया था पर कुछ समय रहने पर उन्हें ज्ञात हो गया कि यहाँ पर उन्हें शान्ति न मिलेगी । आप सब तरह से निवृत्ति में रहना चाहते थे परन्तु आश्रमवासियों की प्रवृत्तियाँ उससे बिलकुल विपरीत थीं । जिस झोंपड़े
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