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श्रमण भगवान् महावीर
बहती है। यदि इस आजी को ही उजुवालिका मान लिया जाय तो बात दूसरी है। परंतु एक बात अवश्य विचारणीय है । आजी एक बड़ी और इसी नाम से प्रसिद्ध प्राचीन नदी है । स्थानांगसूत्र में गंगा की पाँच सहायक बड़ी नदियों में इसकी 'आजी' इसी नाम से परिगणना की है। अत: 'आजी' को ‘उजुवालिया' का अपभ्रंश मानना ठीक नहीं है । एक बात यह भी है कि आजी अथवा दामोदर नदी से पावामध्यमा, जहाँ भगवान् का दूसरा समवसरण हुआ था, लगभग १४० मील दूर पड़ती है जब कि शास्त्र में भगवान् के केवलज्ञान के स्थान से मध्यमा बारह योजन दूर बताई है ।
आवश्यकचूर्णि के लेखानुसार भगवान् केवली होने के पूर्व चम्पा से जंभिय, मिडिय, छम्माणी होते हुए मध्यमा गये थे और मध्यमा से फिर जंभियगाँव गये थे जहाँ आपको केवलज्ञान हुआ । इस विहारवर्णन से ज्ञात होता है कि 'जंभियग्राम' और 'ऋजुपालिका नदी' मध्यमा के रास्ते में चम्पा के निकट ही कहीं होनी चाहिये कि जहाँ से चलकर भगवान् रात भर में मध्यमा पहुँचे थे । बारह योजन का हिसाब भी इससे ठीक बैठ जाता है ।
ऋषभपुर (उसभपुर)-इस नगर के बाहर थूभकरण्डक उद्यान था जहाँ धन्य यक्ष का चैत्य था । महावीर के समय में यहाँ का राजा धनावह और रानी सरस्वती थी । इनके पुत्र का नाम भद्रनन्दी था । महावीर एक बार यहाँ पधारे, तब भद्रनन्दी ने श्राद्धधर्म का स्वीकार किया था और दूसरे समवसरण में श्रमणधर्म के महाव्रत ।
उत्तराध्ययनटीका में दूसरे निह्नव तिष्यगुप्त का नगर ऋषभपुर होना लिखा है परन्तु उन्होंने साथ में ऋषभपुर को राजगृह का पर्याय भी बताया है । इस विषय में आवश्यकचूर्णिकार लिखते हैं-अतिपूर्वकाल में क्षितिप्रतिष्ठित नगर था, उसका वास्तु उच्छिन्न हो जाने पर चनक नगर बसा । चनक नगर के जीर्ण होने पर ऋषभपुर । उसके बाद कुशाग्रपुर और कुशाग्रपुर के बाद उसका स्थानापन्न राजगृह बसा । इस प्रकार ऋषभपुर राजगृह नहीं पर पूर्वकालीन मगध का स्वतंत्र पाटनगर था, ऐसा सिद्ध होता है । उसके उद्यान, यक्ष आदि के नाम भी भिन्न हैं । अतः ऋषभपुर मगधदेश का कोई अति प्राचीन नगर रहा होगा । परन्तु महावीर के जहाँ समवसरण हुए वह ऋषभपुर
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