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जिनकल्प और स्थविरकल्प
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गुरु-शिष्य क्रम से आये हुए सूत्रों की भाषा और शैली में हजार आठ सौ वर्ष में कुछ भी परिवर्तन न हो यह संभव भी नही है । यद्यपि सूत्र में प्रयुक्त प्राकृत उस समय की सीधी सादी लोक भाषा थी; परन्तु समय के प्रवाह के साथ ही उसकी सुगमता ओझल होती गई और उसे समझने के लिये व्याकरणों की आवश्यकता हुई । प्रारम्भ में व्याकरण तत्कालीन भाषानुगामी बने, परन्तु पिछले समय में ज्यों-ज्यों प्राकृत का स्वरूप अधिक मात्रा में बदलता गया त्यों-त्यों व्याकरणों ने भी उसका अनुगमन किया । फल यह हुआ कि हमारी सौत्र प्राकृत पर भी उसका असर पड़े बिना नहीं रहा । यही कारण है कि कुछ सूत्रों की भाषा नयी सी प्रतीत होती है ।
प्राचीन सूत्रों में एक ही आलापक, सूत्र और वाक्य को बार बार लिख कर पुनरुक्ति करने का एक साधारण नियम सा था । यह उस समय की सर्वमान्य शैली थी । वैदिक, बौद्ध और जैन उस समय के सभी ग्रन्थ इसी शैली में लिखे हुए हैं, परन्तु जैन आगमों के पुस्तकारूढ होने के समय यह शैली कुछ अंशों में बदल कर सूत्र संक्षिप्त कर दिये गये और जिस विषय की चर्चा एक स्थल में व्यवस्थित रूप से हो चुकी थी उसे अन्य स्थल में संक्षिप्त कर दिया गया और जिज्ञासुओं के लिये उसी स्थल में सूचना कर दी गई कि यह विषय अमुक सूत्र अथवा स्थल में देख लेना । इसके अतिरिक्त कुछ ऐसी भी बातें जो उस समय तक शास्त्रीय मानी जाने लगी थीं, उचित स्थान में यादी के तौर पर लिख दी गईं जो आजतक उसी रूप में दृष्टिगोचर होती हैं और अपने स्वरूप से ही वे नयी प्रतीत होती हैं ।
जैन सूत्रों में जो कुछ परिवर्तन हुआ है उसकी रूपरेखा ऊपर मुजब है । इसके अतिरिक्त इन सूत्रों में कुछ भी रद्दोबदल नहीं हुआ । दिगम्बरसंघ उक्त कारणों से ही इन आगमों को अप्रामाणिक नहीं कह सकता था । इसलिये उसने आगम-विषयक कई सात नयी परिभाषाएँ बाँधी और उनके आधार पर वर्तमान आगमों को अप्रामाणिक करार दिया । उदाहरण के तौर पर हम एक परिभाषा का यहाँ विवेचन करेंगे ।
प्राचीन पद्धति के अनुसार जैनसूत्रों की 'पद' संख्या निश्चित करके लिख दी गयी है । यह 'पद' संख्या श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों
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