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जिनकल्प और स्थविरकल्प
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पड़ा और उसका विशिष्ट संघ बना जो अब 'दिगम्बर' कहलाता है । इस प्रकार दिगम्बर और श्वेताम्बर जैन विभागों के मूल का उद्गम जैन धर्म के मूल प्रारम्भ तक में ज्ञात होता है, कारण कि इसका अस्तित्व परोक्ष रीत्या दो परस्पर विरोधी विभागों के प्रतिनिधि स्वरूप महावीर और गोशालक नाम के दो सहचर अग्रेसरों के वैमनस्य के आभारी हैं ।' (जै० सा० सं० ३५६ )
दिगम्बर विद्वान् अपने आचार्यों द्वारा गढ़ी हुई भद्रबाहु विषयक कल्पित कथा को सत्य ठहराने के लिये 'प्रख्यात यूरोपीय विद्वान्' कहकर जिनके अभिप्राय को गर्वपूर्वक उद्धृत करते हैं, उन्हीं डाक्टर हार्नले के उपर्युक्त उल्लेख हैं जिनमें वे महावीर को भिक्षापात्र की छूट रखनेवाला, उनके निर्ग्रन्थों को लंगोटी पहनने वाला और आधुनिक दिगम्बर संघ को भद्रबाहु के समय में निर्ग्रन्थ संघ से जुदी पड़ी हुई गोशालक सन्तति होना बताते हैं । क्यों विद्वानो ! प्रख्यात यूरोपीय विद्वान् के इन विचारों को भी आप अक्षरशः सत्य मानेंगे न ?
इसी प्रकार डा० जे० स्टीवेन्सन और मि० एम० एस० रामस्वामी ऐयंगर ने ईसा की प्रथम शताब्दी में श्वेताम्बर - दिगम्बरों के पृथक् होने की जो बात कही है, उसका आधार भट्टारक देवसेन की वह कथा है जो कि उन्होंने श्वेताम्बरों की उत्पत्ति के विषय में गढ़ी है । यदि ये से कसौटी पर चढ़ा कर जाँच करते तो विक्रम संवत् के अपने आप इसकी नूतनता और कृत्रिमता प्रकट हो जाती ।
हमने ऊपर इस कथा की जो मीमांसा की है, उससे विचारक समझ सकते हैं कि इस कथा में कुछ भी वास्तविकता नहीं है और जब आधारभूत वृत्तान्त ही कृत्रिम है, तो उसके आधार पर व्यक्त किये गये आधुनिक विद्वानों के अभिप्रायों का मूल्य कितना हो सकता है ? विचारक पाठकगण स्वयं निर्णय कर सकते हैं !
विद्वान् इस कथा
निर्देश आदि से
एनसाइक्लोपीडिया - बृटेनिका के किसी लेखक ने श्वेताम्बर जैन संघ की पुस्तकलेखन संबंधी घटना का रहस्य न समझ कर उसे श्वेताम्बरों की उत्पत्ति मानने की भूल कर ली और उस भूल को प्रमाण के तौर पर उद्धृत
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